दिवाली 2025 की कथा: पौराणिक मान्यताएँ और उत्सव का महत्व

दिवाली का त्योहार हर साल कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह पर्व माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा के लिए विशेष है। इस लेख में हम दिवाली की पौराणिक कथाओं का उल्लेख करेंगे, जिसमें सतयुग, त्रेता युग और द्वापर युग की कहानियाँ शामिल हैं। जानें कैसे समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी का प्रकट होना और भगवान राम का अयोध्या लौटना इस पर्व के महत्व को बढ़ाता है।
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दिवाली का पर्व और इसकी पूजा

दिवाली का त्योहार हर वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन माता लक्ष्मी और भगवान गणेश की विशेष पूजा विधिपूर्वक की जाती है। दिवाली के अवसर पर माता लक्ष्मी की पूजा प्रदोष काल में की जाती है। यह पर्व केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि प्राचीन काल से मनाया जा रहा है, जिसका प्रमाण विभिन्न पौराणिक कथाओं में मिलता है। आइए, हम इन कथाओं पर एक नज़र डालते हैं।


सतयुग में दिवाली का आरंभ

दिवाली का आरंभ सतयुग में समुद्र मंथन से जुड़ा हुआ है। देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया, जिससे कई दिव्य निधियाँ प्राप्त हुईं। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को भगवान धन्वंतरि अमृत का कलश लेकर प्रकट हुए, जिसे धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन से दिवाली का पांच दिवसीय पर्व शुरू होता है। समुद्र मंथन के दौरान धन और समृद्धि की देवी माता लक्ष्मी प्रकट हुईं, और देवताओं ने उनके स्वागत में दीप जलाकर पहली दिवाली मनाई।


त्रेता युग की दिवाली

त्रेता युग भगवान श्री राम के नाम से जाना जाता है। जब प्रभु राम चौदह वर्षों का वनवास समाप्त कर लंकापति रावण का वध करके अयोध्या लौटे, तो नगर को सजाया गया और हर जगह दीप जलाए गए। इस प्रकार त्रेता युग की पहली दिवाली मनाई गई, जो अंधकार पर प्रकाश का प्रतीक बन गई।


द्वापर युग की दिवाली

द्वापर युग में दीपोत्सव से एक दिन पहले रूप चौदस को भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया। इस दिन को नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। नरकासुर के वध की खुशी में अगले दिन द्वारिका और मथुरा में लोगों ने दीप जलाकर उत्सव मनाया।


धार्मिक मान्यताएँ

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