कालभैरव जयंती 2025: भगवान शिव के रौद्र रूप की उत्पत्ति की कथा
कालभैरव जयंती 2025
कालभैरव जयंती 2025
कालभैरव की कथा: कालभैरव जयंती भगवान शिव के रौद्र स्वरूप, कालभैरव को समर्पित है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, मार्गशीर्ष (अगहन) मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को कालभैरव का जन्म हुआ था। पंचांग के अनुसार, 2025 में यह पर्व 12 नवंबर, बुधवार को मनाया जाएगा। इस दिन भगवान शिव के भयंकर रूप की पूजा की जाती है। यह दिन विशेष रूप से भय और नकारात्मक शक्तियों पर विजय का प्रतीक माना जाता है। आइए जानते हैं कि भगवान शिव के इस अद्भुत रूप की उत्पत्ति कैसे हुई और इससे जुड़ी पौराणिक कथा क्या है।
अहंकार के नाश के लिए शिव का रौद्र अवतार
भगवान कालभैरव के जन्म की कथा पुराणों में विस्तार से वर्णित है, जो मुख्य रूप से ब्रह्मा जी के अहंकार से जुड़ी है।
श्रेष्ठता का विवाद
एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) के बीच यह विवाद हुआ कि तीनों में से कौन सबसे श्रेष्ठ है। इस समस्या के समाधान के लिए सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों की एक सभा बुलाई गई।
ब्रह्मा जी का क्रोध और अपमान
सभी देवताओं और ऋषियों ने विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया कि भगवान शिव ही श्रेष्ठ हैं। भगवान विष्णु ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया, लेकिन सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी इससे असहमत हो गए। अहंकारवश उन्होंने न केवल इस निर्णय का विरोध किया, बल्कि भगवान शिव के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग भी किया।
शिव के क्रोध से कालभैरव का जन्म
ब्रह्मा जी के इस आचरण से भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। शिव का क्रोध इतना प्रचंड था कि उसी क्षण उनके शरीर से एक तेजस्वी और विकराल शक्ति प्रकट हुई, जो स्वयं काल का प्रतिनिधित्व करती थी। यही शक्ति कालभैरव कहलायी। शिव के इस रौद्र रूप को देखकर वहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि भयभीत हो गए।
ब्रह्मा जी का शीश काटना
उत्पत्ति के बाद, कालभैरव ने ब्रह्मा जी के अहंकार को नष्ट करने के लिए अपने त्रिशूल या नाखून से उनके पांच मुखों में से एक मुख को धड़ से अलग कर दिया। इस घटना के बाद से ब्रह्मा जी के चार मुख ही रह गए।
ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति और काशी का कोतवाल बनना
ब्रह्मा जी का शीश काटने के कारण कालभैरव पर ‘ब्रह्महत्या’ का पाप लग गया और कटा हुआ सिर उनके हाथ से चिपक गया। भगवान शिव ने भैरव को इस पाप से मुक्ति पाने के लिए पृथ्वी पर सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा करने का आदेश दिया।
पाप से मुक्ति: कालभैरव जहाँ भी गए, ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर उनके हाथ से नहीं गिरा। अंततः, जब उन्होंने काशी (वाराणसी) नगरी में प्रवेश किया, तो उनके हाथ से वह सिर (कपाल) गिर गया और उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई।
कपाल मोचन तीर्थ: जिस स्थान पर ब्रह्मा जी का सिर गिरा था, वह स्थान आज ‘कपाल मोचन तीर्थ’ के नाम से जाना जाता है।
काशी के कोतवाल: मुक्ति मिलने पर भगवान शिव ने कालभैरव को उसी स्थान पर रहकर तपस्या करने और काशी नगरी का ‘कोतवाल’ (संरक्षक) बनने का आदेश दिया।
मान्यता है कि काशी में बाबा विश्वनाथ के दर्शन से पहले कालभैरव के दर्शन करना अनिवार्य है, अन्यथा काशी यात्रा का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। इसी कारण भगवान कालभैरव को ‘काशी का कोतवाल’ भी कहा जाता है।
