हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार की विशेषताएँ: शिशुओं और संतों के लिए अलग प्रथा

अंतिम संस्कार का महत्व

हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार को एक अत्यंत पवित्र अनुष्ठान माना जाता है, जो आत्मा की अंतिम यात्रा का प्रतीक है। गरुड़ पुराण के अनुसार, शवदाह मृतक के अंतिम संस्कार की एक निर्धारित विधि है। यह सोलह संस्कारों में से एक है, जो हिंदू जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाता है। हालांकि, कुछ अपवाद भी हैं, जैसे कि शिशुओं और संन्यासियों का दाह संस्कार नहीं किया जाता।
अनुष्ठान का आध्यात्मिक महत्व
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि हर अनुष्ठान को कुछ विशेष दिशा-निर्देशों और आध्यात्मिक नियमों के अनुसार करना चाहिए। सही तरीके से किए गए संस्कारों से दिवंगत आत्मा को शांति मिलती है और उसे अगले जीवन में प्रवेश करने में सहायता मिलती है। हिंदू परंपराओं में, सामान्य व्यक्तियों का दाह संस्कार किया जाता है, जबकि शिशुओं और संतों को आमतौर पर दफनाने की प्रथा है।
शिशुओं का दफनाना: कारण
पवित्र ग्रंथों के अनुसार, यदि कोई बच्चा गर्भ में या दो साल की उम्र से पहले मर जाता है, तो उसका दाह संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा माना जाता है कि इतनी कम उम्र में आत्मा का भौतिक शरीर से कोई लगाव नहीं होता है, और न ही वह सांसारिक सुख या दुख का अनुभव करती है। इसलिए, आत्मा जल्दी और शांति से शरीर को छोड़ देती है। इस कारण, शिशुओं को अक्सर दफनाया जाता है या कुछ मामलों में उनके शरीर को नदी में विसर्जित किया जाता है।
संतों का दाह संस्कार न करने का कारण
गरुड़ पुराण के अनुसार, संतों और आध्यात्मिक त्यागियों का दाह संस्कार नहीं किया जाता क्योंकि वे जीवन में ही सांसारिक मोह को त्याग चुके होते हैं। वे कठोर तपस्या और भक्ति के माध्यम से अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करते हैं। इसलिए, उनके शरीर को भौतिक मोह से बंधा नहीं माना जाता, और उन्हें दफनाया जाता है, जो उनकी आध्यात्मिक शुद्धता का प्रतीक है।