सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की घटना: न्यायपालिका की गरिमा पर सवाल
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की घटना ने न्यायपालिका की गरिमा को चुनौती दी है। पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने सुझाव दिया है कि न्यायाधीशों को अदालत में कम बोलना चाहिए। उनका मानना है कि न्याय का कार्य सुनना है, न कि बोलना। इस घटना के बाद, वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने भी भेदभावपूर्ण व्यवहार का अनुभव साझा किया। क्या अदालतों को अपनी संवेदनशीलता बढ़ानी चाहिए? जानें इस मुद्दे पर और क्या कहा गया है।
Oct 10, 2025, 14:19 IST
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न्यायपालिका की गरिमा पर उठते सवाल
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने की घटना ने न केवल निंदा का विषय बना, बल्कि यह बढ़ते असंतोष का संकेत भी है। इस संदर्भ में पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने सुझाव दिया है कि “न्यायाधीशों को अदालत में कम बोलना चाहिए।” उन्होंने कहा कि “ज्यादा बोलने वाला न्यायाधीश बेसुरा बाजा होता है।” यह केवल एक व्यंग्य नहीं, बल्कि न्यायशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं। जब अदालतों में वाक्पटुता न्याय से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, तब न्यायाधीशों की व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ और ‘पब्लिक शो’ की मुद्रा अदालत की गरिमा को प्रभावित करती हैं। काटजू का तर्क स्पष्ट है— न्यायाधीश का कार्य सुनना है, बोलना नहीं।
अदालत वह स्थान है जहाँ तर्कों की मर्यादा निर्धारित होती है, न कि केवल शब्दों की। लेकिन हाल के वर्षों में अदालतों का माहौल कुछ अलग दिशा में बढ़ता दिख रहा है। न्यायाधीश अक्सर समाज, राजनीति और याचिकाकर्ताओं पर टिप्पणियाँ करते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल न्याय की गंभीरता को कम करती है, बल्कि न्यायिक तटस्थता को भी कमजोर करती है, जिस पर इस संस्था की विश्वसनीयता निर्भर करती है।
वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने भी अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि उन्हें कभी-कभी न्यायालय में भेदभाव का सामना करना पड़ा है। यदि एक वरिष्ठ वकील इस तरह की बातें कहने को मजबूर हैं, तो सामान्य नागरिक की स्थिति क्या होगी? न्याय केवल किया नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे स्पष्ट रूप से दिखाई भी देना चाहिए— यह सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
यह सच है कि उच्चतम न्यायालय में हुई घटना पर प्रधान न्यायाधीश गवई ने उत्तेजना नहीं दिखाई, बल्कि दोषी अधिवक्ता को चेतावनी देकर छोड़ने का निर्देश दिया, जो उनके न्यायिक संतुलन का प्रमाण है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हमें ऐसी स्थितियों को बनने से रोकना नहीं चाहिए? क्या अदालत को इतनी संवेदनशीलता नहीं रखनी चाहिए कि उसकी एक टिप्पणी भी समाज में विवाद का कारण न बने?
जस्टिस काटजू की यह सलाह दरअसल अदालतों के चरित्र की पुनर्स्थापना की आवश्यकता को दर्शाती है। अदालतों का आदर्श वह होना चाहिए जहाँ गंभीरता, शालीनता और संयम तीनों का समावेश हो। न्याय की शक्ति उसकी भाषा की कोमलता में है, न कि तीखे व्यंग्य में। आज जब न्यायपालिका पर जनता की निगाहें पहले से अधिक हैं, तब यह और भी आवश्यक है कि न्यायाधीश अपने शब्दों की सीमाओं को समझें। क्योंकि अदालत में बोला गया हर वाक्य आदेश से कम प्रभावशाली नहीं होता। काटजू की बात का सार यही है कि न्याय की कुर्सी पर वाणी का नहीं, विवेक का शासन होना चाहिए।