सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन पर उठाए गंभीर सवाल, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता

सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिकता पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा है कि आधुनिक समाज में ऐसी प्रथाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह प्रक्रिया महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करती है और दांपत्य जीवन को अस्थिर बनाती है। बेनज़ीर हीना के मामले में पति ने वकील के माध्यम से तलाक भेजा, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस प्रथा का दुरुपयोग हो रहा है। अदालत ने संकेत दिया है कि इस मामले को संविधान पीठ को भेजा जा सकता है, जिससे भविष्य में इस प्रथा की वैधता पर गहन परीक्षण होगा।
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सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन पर उठाए गंभीर सवाल, महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता

तलाक-ए-हसन की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की वैधता पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा है कि आधुनिक समाज में ऐसी प्रथाओं को कैसे स्वीकार किया जा सकता है। तलाक-ए-हसन एक प्रक्रिया है, जिसमें मुस्लिम पुरुष हर महीने एक बार 'तलाक' कहकर तीन महीने में विवाह समाप्त कर सकता है। यह टिप्पणी पत्रकार बेनज़ीर हीना की याचिका पर की गई, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि उनके पति ने वकील के माध्यम से तलाक भेजा और स्वयं हस्ताक्षर नहीं किए, इसके बाद उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। अदालत ने इस प्रथा के दुरुपयोग, महिलाओं की गरिमा पर इसके प्रभाव और मुस्लिम समाज में चल रहे एकतरफा और extrajudicial तलाकों की वैधता पर चिंता व्यक्त की। इस मामले को उच्चतम न्यायालय तक ले जाने में वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अश्विनी उपाध्याय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।


सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए सवाल केवल कानूनी बहस नहीं हैं, बल्कि यह भारतीय समाज की चेतना को झकझोरने वाली टिप्पणी है। आठ वर्ष पहले, तलाक-ए-बिद्दत यानी Instant तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया था। इसके बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि एकतरफा तलाक की परंपरा समाप्त हो जाएगी, लेकिन तलाक-ए-हसन जैसी प्रक्रियाएँ अभी भी मुस्लिम समाज में विद्यमान हैं, जो महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करती हैं और दांपत्य जीवन को अस्थिर बनाती हैं।


तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया और उसके दुष्परिणाम

हालांकि तलाक-ए-हसन की प्रक्रिया तीन महीने की होती है, लेकिन इसकी असली समस्या एकतरफा अधिकार और उसका मनमाना उपयोग है। पति द्वारा तीन महीनों में तीन बार तलाक बोलने से विवाह समाप्त हो जाता है, जबकि पत्नी को न तो सुनवाई का अवसर मिलता है और न ही प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण। यह असंतुलन आधुनिक संवैधानिक मूल्यों— समानता, गरिमा और न्याय के खिलाफ है।


बेनज़ीर हीना का मामला इस असंतुलन का एक स्पष्ट उदाहरण है। उनके पति ने स्वयं सामने आने के बजाय वकील के माध्यम से तलाक का नोटिस भेजा, जिसमें उनके हस्ताक्षर भी नहीं थे। इस तरह का 'एजेंट के माध्यम से तलाक' न तो इस्लामी परंपराओं के अनुरूप है और न ही यह किसी सभ्य समाज में स्वीकार्य है। न्यायालय ने सही कहा कि यदि तलाक धार्मिक प्रथा के अनुसार होना है, तो प्रक्रियाओं का पालन भी ईमानदारी से होना चाहिए।


महिलाओं की स्थिति और समाज में सुधार की आवश्यकता

इस प्रकरण की सबसे पीड़ादायक परिणति यह रही कि बेनज़ीर अपनी वैवाहिक स्थिति सिद्ध न कर पाने के कारण अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला भी नहीं करा सकीं। जिस समाज में एक शिक्षित, संसाधनयुक्त महिला को यह समस्याएँ झेलनी पड़ रही हों, वहाँ दूरदराज़ के इलाकों में रहने वाली साधारण महिलाओं की स्थिति कितनी दयनीय होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।


मुस्लिम समाज में तलाक की कुरीतियों का सबसे बड़ा संकट यह है कि इनका उपयोग अक्सर दहेज विवाद, घरेलू हिंसा या पारिवारिक कलह को ढकने के साधन के रूप में किया जाता है। पति बिना किसी जवाबदेही के, बिना किसी पारिवारिक परामर्श के, बिना किसी महिला क़ानूनी सुरक्षा के, शादी को समाप्त कर देता है और पत्नी तथा बच्चों को अनिश्चितता में छोड़ देता है। यह न तो शरीयत का वास्तविक उद्देश्य है और न ही इस्लामी न्याय की आत्मा।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और भविष्य की संभावनाएँ

सुप्रीम कोर्ट ने उचित रूप से कहा कि 'किसी सभ्य समाज में इस तरह की प्रथाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती।' न्यायालय ने यह भी संकेत दिया कि मामला पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजा जा सकता है। इसका अर्थ है कि आने वाले समय में तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता पर गहन परीक्षण होगा। यदि यह प्रथा असमानता और महिलाओं के मूल अधिकारों का उल्लंघन करती पाई गई, तो भविष्य में इसे भी तीन तलाक की तरह प्रतिबंधित किया जा सकता है।


यह बहस केवल मुस्लिम समाज की नहीं है, बल्कि यह पूरे भारत की महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा का प्रश्न है। जब देश में सभी समुदायों की महिलाओं को समान अधिकार देने का संकल्प लिया गया है, तब ऐसी प्रथाओं पर पुनर्विचार आवश्यक है जो किसी एक वर्ग की महिलाओं को धार्मिक कानूनों के नाम पर दोयम दर्जे का नागरिक बना देती हैं।


कानून का दायित्व और समाज की जिम्मेदारी

बेनज़ीर जैसी आवाज़ें बताती हैं कि परिवर्तन तभी संभव है जब पीड़ित महिला स्वयं साहस जुटाए, लेकिन हर महिला अपने अधिकारों के लिए इतना संघर्ष नहीं कर सकती। यही कारण है कि क़ानून का दायित्व बनता है कि वह ऐसे अन्यायपूर्ण अभ्यासों को रोके और महिला को समान कानूनी सुरक्षा प्रदान करे। अब यह मुस्लिम समाज और क़ानून निर्माताओं दोनों की जिम्मेदारी है कि तलाक जैसी प्रक्रियाओं में सुधार करें और महिलाओं को एक मानवीय, न्यायपूर्ण और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करें।