सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की याचिका को किया खारिज, न्यायिक प्रक्रिया पर उठाए सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की याचिका को खारिज करते हुए न्यायिक प्रक्रिया के उल्लंघन पर कड़ी टिप्पणी की है। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा कि सरकार का यह रवैया सुनवाई से बचने का प्रयास है। अदालत ने आगे की सुनवाई 7 नवंबर तक स्थगित कर दी है। इस मामले में संविधान की व्याख्या से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं। जानें इस महत्वपूर्ण निर्णय के पीछे की पूरी कहानी और इसके लोकतंत्र पर प्रभाव।
                                         | Nov 4, 2025, 11:57 IST
                                            
                                        
                                        
                                    सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
  सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को सख्त चेतावनी देते हुए उसकी उस याचिका को अस्वीकार कर दिया, जिसमें सरकार ने ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को सौंपने का अनुरोध किया था। यह मांग सुनवाई के दौरान अचानक उठाई गई, जब याचिकाकर्ताओं की बहस समाप्त हो चुकी थी। प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, “हमें भारत सरकार से ऐसी चालबाज़ी की उम्मीद नहीं थी। अदालत के साथ इस तरह का खेल अस्वीकार्य है।” न्यायमूर्ति गवई, जो जल्द ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं, ने कहा कि केंद्र का यह रवैया दर्शाता है कि वह मेरी पीठ के समक्ष सुनवाई से बचना चाहती है। 
  
  केंद्र सरकार की सफाई
  पीठ ने आगे कहा, “हमने याचिकाकर्ताओं के सभी तर्कों को विस्तार से सुना। अटॉर्नी जनरल ने एक बार भी यह नहीं बताया कि केंद्र सरकार इस मामले को पाँच न्यायाधीशों की पीठ को सौंपना चाहती है। अब, जब बहस समाप्त हो चुकी है, तो यह याचिका केवल देरी की रणनीति प्रतीत होती है।” केंद्र की ओर से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि सरकार का कोई अनुचित इरादा नहीं था। उन्होंने कहा, “मामले में संविधान की व्याख्या से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, इसलिए इसे संविधान पीठ के पास भेजना उचित होगा।” लेकिन पीठ ने इसे स्वीकार नहीं किया। 
  न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन
  न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि “आधी रात को दाखिल यह आवेदन न्यायिक प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ है। हमने याचिकाकर्ताओं की बहस पूरी सुन ली है, अब सरकार इस आधार पर सुनवाई को टाल नहीं सकती।” हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि यदि उसे लगता है कि मामला संविधान की गंभीर व्याख्या से जुड़ा है, तो वह इसे स्वयं पाँच न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज सकती है। फिलहाल, अदालत ने आगे की सुनवाई 7 नवंबर तक के लिए स्थगित कर दी है। 
  
  संविधान की व्याख्या पर प्रश्न
  केंद्र ने अपने आवेदन में कहा था कि यह मामला संविधान की व्याख्या से जुड़े ऐसे प्रश्न उठाता है जिन पर अनुच्छेद 145(3) के तहत कम से कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ को विचार करना चाहिए। साथ ही यह भी प्रश्न उठाया गया कि क्या सर्वोच्च न्यायालय संसद को किसी विशिष्ट रूप में कानून बनाने का निर्देश दे सकता है? और क्या यह विभाजन सिद्धांत (Doctrine of Separation of Powers) का उल्लंघन नहीं होगा? 
  सरकार और न्यायपालिका के बीच असहजता
  मुख्य न्यायाधीश गवई की तीखी टिप्पणी केवल किसी एक याचिका या सुनवाई तक सीमित नहीं है, यह शासन और न्यायपालिका के बीच बढ़ती असहजता का संकेत भी है। जब सर्वोच्च न्यायालय को यह कहना पड़े कि “सरकार अदालत के साथ चालबाज़ी न करे”, तो यह केवल एक संस्था की फटकार नहीं बल्कि लोकतंत्र के संतुलन पर चिंता की घंटी है। लोकतंत्र की रीढ़ न्यायपालिका तभी मज़बूत रह सकती है जब शासन उसे सहयोगी के रूप में देखे, न कि बाधा के रूप में। ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम पर पहले ही अदालत और सरकार के बीच कई बार मतभेद सामने आ चुके हैं। 
  
  न्यायपालिका की स्वायत्तता का संदेश
  मुख्य न्यायाधीश गवई का यह कहना कि “सरकार सुनवाई से बच रही है” वस्तुतः इस प्रवृत्ति की ओर संकेत है कि जब भी कोई संवैधानिक सवाल सरकार की नीतियों को चुनौती देता है, तब प्रक्रिया को लंबा खींचने की कोशिश की जाती है। यह न केवल न्यायिक अनुशासन के विरुद्ध है, बल्कि जनता के उस विश्वास पर भी चोट करता है जो अदालत की निष्पक्षता पर टिका है। सरकारों को यह समझना होगा कि अदालतें राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि संविधान की प्रहरी हैं। उनका दायित्व है कि वे सत्ता की सीमाएँ तय करें ताकि लोकतंत्र संतुलित रह सके। 
  कार्यपालिका को आत्ममंथन की आवश्यकता
  मुख्य न्यायाधीश की यह फटकार इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वायत्तता और गरिमा की रक्षा का संदेश देती है कि कोई भी सत्ता, चाहे कितनी ही शक्तिशाली क्यों न हो, न्यायिक प्रक्रिया के साथ “खेल” नहीं सकती। यह वक्त है जब कार्यपालिका को यह आत्ममंथन करना चाहिए कि वह अदालतों से टकराने की बजाय उनके प्रति पारदर्शी और उत्तरदायी बने क्योंकि अंततः, न्याय ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी शक्ति है। 
  