मोहन भागवत का प्रवासी संकट पर विचार: भारत का सांस्कृतिक दृष्टिकोण

ब्रिटेन में प्रवासियों के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के बीच, मोहन भागवत ने भारतीय संस्कृति के महत्व को उजागर किया। उन्होंने साझा जीवनदृष्टि की आवश्यकता पर जोर दिया और बताया कि भारत ने विविधता के बीच एकता का मॉडल पेश किया है। भागवत का यह संदेश न केवल भारत के लिए, बल्कि वैश्विक संकटों के समाधान के लिए भी प्रासंगिक है। उनका विचार है कि सहअस्तित्व और संवाद की संस्कृति ही मानवता का स्थायी भविष्य सुनिश्चित कर सकती है।
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मोहन भागवत का प्रवासी संकट पर विचार: भारत का सांस्कृतिक दृष्टिकोण

ब्रिटेन में प्रवासियों के खिलाफ प्रदर्शन और भारतीय संस्कृति का संदेश

ब्रिटेन में प्रवासियों के खिलाफ हो रहे हिंसक प्रदर्शनों और सामाजिक तनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बहुसांस्कृतिक समाज के संचालन में सबसे बड़ी चुनौती साझा जीवनदृष्टि की कमी है। इसी संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत का इंदौर में दिया गया वक्तव्य महत्वपूर्ण है। भागवत ने कहा कि जब भारत तीन हजार वर्षों तक विश्व का सिरमौर रहा, तब दुनिया में कोई कलह नहीं थी। यह बयान केवल ऐतिहासिक गौरव का उल्लेख नहीं है, बल्कि आज की वैश्विक परिस्थितियों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है। उन्होंने बताया कि भारतीय संस्कृति कभी आक्रामक नहीं रही, न किसी का धर्म परिवर्तन किया, न व्यापार पर दबाव डाला और न ही किसी पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश की। इसके बजाय, उसने संवाद और सहअस्तित्व की परंपरा को आगे बढ़ाया। यही मूल्य वर्तमान यूरोप, विशेषकर ब्रिटेन में गहराते प्रवासी संकट का समाधान सुझा सकते हैं।




मोहन भागवत ने कहा कि पारंपरिक दर्शन पर विश्वास रखने के कारण देश लगातार आगे बढ़ रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत के 3,000 वर्षों तक विश्व का सिरमौर रहने के दौरान कोई कलह नहीं थी। भागवत ने यह उल्लेख किया कि ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि भारत स्वतंत्र होने पर एक नहीं रह पाएगा और बंट जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जो कभी बंट गया है, 'हम वह भी फिर से मिला लेंगे।' यह टिप्पणी उन्होंने मध्य प्रदेश के काबीना मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल की पुस्तक 'परिक्रमा कृपा सार' के विमोचन के दौरान की।




ब्रिटेन की वर्तमान स्थिति में पहचान, नस्ल और धार्मिक विविधता के कारण उभरते टकराव एक ऐसी व्यवस्था को उजागर करते हैं जो केवल कानून और व्यवस्था के सहारे शांति बनाए रखना चाहती है, लेकिन सांस्कृतिक और दार्शनिक धरातल पर साझा भावनाओं का निर्माण नहीं कर पा रही है। इसके विपरीत, भारत ने विविधता के बीच एकता का मॉडल पेश किया है। भागवत का यह कहना कि 'हम कभी बंट गए थे, पर जो बंट गया है, उसे भी हम फिर मिला लेंगे' केवल राजनीतिक आशावाद नहीं है, बल्कि एक दृष्टिकोण है जो विभाजन की पीड़ा झेलने के बाद भी एकता की संभावना पर विश्वास करता है।




भागवत का यह कहना कि 'भारतीय संस्कृति तेरे-मेरे के भेद से ऊपर उठने का संदेश देती है' प्रवासी समाजों के लिए विशेष महत्व रखता है। प्रवासी संकट की जड़ अक्सर 'निजी स्वार्थ' और 'पहचान आधारित राजनीति' में होती है। जबकि भारतीय दर्शन सिखाता है कि मनुष्य को कर्म और ज्ञान दोनों में संतुलन साधना चाहिए और जीवन को साझा मानवीय मूल्यों के आधार पर जीना चाहिए।




आज जब ब्रिटेन जैसे देशों में प्रवासियों को बाहरी या बोझ मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, तब भारत का अनुभव बताता है कि विविधता को खतरे के रूप में नहीं, बल्कि शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाए। भारतीय समाज में सिख, बौद्ध, जैन, इस्लाम और ईसाई—सभी परंपराएं अपनी-अपनी पहचान के साथ फली-फूलीं। यही कारण है कि भारत विभाजन की त्रासदी के बावजूद एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ सका।




भागवत का पर्यावरण और परिवार पर दिया गया संदेश भी ब्रिटेन की स्थिति से जुड़ा प्रतीत होता है। पश्चिमी समाज में जहां परिवार और प्रकृति से जुड़ाव कमज़ोर होता जा रहा है, वहीं भारत की संस्कृति 'नदी को मां' और 'धरती को पूजनीय' मानकर जीवन का आधार बनाती है। यह दृष्टिकोण केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक सामंजस्य का मूल है।




मोहन भागवत का वक्तव्य केवल भारत की सांस्कृतिक श्रेष्ठता की चर्चा नहीं करता, बल्कि वैश्विक संकटों के लिए भी एक समाधान प्रस्तुत करता है। ब्रिटेन में प्रवासी विरोधी प्रदर्शनों ने यह दिखा दिया है कि महज़ कानून या आर्थिक ताकत सामाजिक शांति सुनिश्चित नहीं कर सकती। इसके लिए साझा मूल्य, पारस्परिक आत्मीयता और संवाद की संस्कृति जरूरी है। भारत का अनुभव और दर्शन इस राह में मार्गदर्शक बन सकता है। आज जब दुनिया पहचान की राजनीति और संकीर्ण स्वार्थों में उलझी है, भागवत का यह स्मरण प्रासंगिक है कि मानवता का स्थायी भविष्य केवल सहअस्तित्व और समरसता में ही संभव है।