भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की पारदर्शिता की आवश्यकता

भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की पारदर्शिता की आवश्यकता पर उच्चतम न्यायालय का हालिया निर्देश महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और उनकी पीठ ने अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया। यह याचिका राजनीतिक दलों को अपने नियम और वित्तीय पारदर्शिता को सार्वजनिक करने के लिए प्रेरित करती है। यदि न्यायालय ठोस दिशा-निर्देश जारी करता है, तो यह चुनावी पारदर्शिता की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम होगा। जानें इस मुद्दे की गहराई और इसके लोकतंत्र पर प्रभाव के बारे में।
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भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की पारदर्शिता की आवश्यकता

राजनीतिक दलों की भूमिका और पारदर्शिता

भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल केवल सत्ता की सीढ़ी नहीं, बल्कि जनविश्वास की रीढ़ भी हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस रीढ़ की मजबूती आज तक किसी ठोस पारदर्शी ढांचे में नहीं ढली। ऐसे समय में जब राजनीतिक जवाबदेही अक्सर केवल चुनावी नारे बनकर रह जाती है, उच्चतम न्यायालय का यह संकेत कि वह राजनीतिक दलों को अपने ज्ञापन, नियम और विनियम सार्वजनिक करने का निर्देश दे सकता है, लोकतंत्र की सेहत के लिए एक बड़ा संकेत है।




न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और निर्वाचन आयोग को नोटिस जारी किया। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि “जब तक कोई ठोस बाधा न हो, कुछ निर्देश जारी करना चाहेंगे।” शीर्ष अदालत ने केंद्र की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज से कहा कि याचिका में कुछ सार्थक प्रार्थनाएं हैं। यह वाक्य अपने आप में न्यायपालिका की उस सजग भूमिका का प्रतीक है जो वह लोकतंत्र की जड़ों को सुदृढ़ करने के लिए निभा रही है।


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अश्विनी उपाध्याय, जिन्हें आज देशभर में “पीआईएल मैन” के रूप में जाना जाता है, उन्होंने वर्षों से जनहित याचिकाओं के जरिये एक स्वस्थ लोकतंत्र के निर्माण की दिशा में निरंतर प्रयास किए हैं। चाहे चुनाव सुधारों की बात हो, समान नागरिक संहिता पर बहस, या अपराधियों के राजनीति में प्रवेश पर रोक की बात हो, अश्विनी उपाध्याय ने लगभग हर उस क्षेत्र में न्यायिक हस्तक्षेप की मांग उठाई है, जहाँ शासन की चुप्पी अखर रही थी।




उनकी यह नई याचिका भी उसी मिशन का विस्तार है कि राजनीतिक दल अपने संविधान, नियमावली और वित्तीय पारदर्शिता को जनता के समक्ष रखें। आखिर जनता को यह जानने का अधिकार है कि जिन संगठनों के हाथ में वह अपनी नियति सौंपती है, उनका आंतरिक ढांचा कितना लोकतांत्रिक और कितना जवाबदेह है। देखा जाये तो यह मांग कोई तकनीकी औपचारिकता नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ी है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29ए पहले ही यह कहती है कि राजनीतिक दल अपने ज्ञापन और नियमों का पालन करें, किंतु इन प्रावधानों का सार्वजनिक परीक्षण कभी नहीं हुआ। परिणामस्वरूप सैंकड़ों “कागजी दल” आज भी चुनावी व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाकर जनता के भरोसे को चोट पहुँचा रहे हैं।




अब यदि न्यायालय इस याचिका पर ठोस दिशा-निर्देश जारी करता है, तो यह न केवल चुनावी पारदर्शिता की दिशा में ऐतिहासिक कदम होगा, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र को एक नैतिक शुद्धि भी प्रदान करेगा— एक ऐसी शुद्धि, जिसकी नींव जनता के सूचना-अधिकार और दलों की जवाबदेही पर टिकी होगी। अश्विनी उपाध्याय जैसे लोगों के सतत प्रयासों ने यह साबित कर दिया है कि न्यायपालिका केवल कानून की रक्षक नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा की संरक्षक भी है।