पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्यपाल सत्यपाल मलिक का निधन, राजनीतिक जीवन की अनकही कहानियाँ

सत्यपाल मलिक का निधन
जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक का आज एक अस्पताल में निधन हो गया। उनकी उम्र 79 वर्ष थी। उनके निजी स्टाफ ने इस दुखद समाचार की पुष्टि की। सत्यपाल मलिक ने अपने राजनीतिक करियर में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य के रूप में कार्य किया, और गोवा, बिहार, मेघालय और ओडिशा के राज्यपाल भी रहे। उनका निधन राम मनोहर लोहिया अस्पताल में दोपहर 1:12 बजे हुआ। उनके स्टाफ के अनुसार, वह लंबे समय से आईसीयू में भर्ती थे और कई बीमारियों का इलाज चल रहा था। यह भी ध्यान देने योग्य है कि उनका निधन उस दिन हुआ जब 2019 में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त किया था।
राजनीतिक सफर और विचारधारा
सत्यपाल मलिक भारतीय राजनीति के उन चुनिंदा नेताओं में से थे, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सच्चाई की आवाज उठाई। उनका जीवन और करियर इस बात का प्रमाण है कि कैसे सिद्धांत, विवेक और राजनीतिक दबाव एक-दूसरे से टकराते हैं। उन्होंने 1970 के दशक में भारतीय क्रांति दल से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की और बाद में विभिन्न दलों जैसे जनता पार्टी, लोक दल, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और अंततः भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े।
उन्होंने उत्तर प्रदेश से लोकसभा और राज्यसभा में सांसद के रूप में कार्य किया और केंद्रीय मंत्री भी रहे। उनका करियर इस बात का संकेत देता है कि वे किसी एक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहे, बल्कि समय के अनुसार राजनीतिक अवसरों को अपनाते रहे। हालांकि, किसान, भ्रष्टाचार और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण स्थिर रहा।
विवादास्पद कार्यकाल
सत्यपाल मलिक ने बिहार, जम्मू-कश्मीर, गोवा और मेघालय के राज्यपाल के रूप में कार्य किया, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उनका कार्यकाल सबसे अधिक चर्चित रहा। 2018 में, उन्होंने राज्य में पीडीपी-कांग्रेस-एनसी गठबंधन को सरकार बनाने की अनुमति देने से मना कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप राज्यपाल शासन लागू हुआ और बाद में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा (अनुच्छेद 370) समाप्त किया गया। उन्होंने इस घटनाक्रम पर कहा था कि उन्हें दिल्ली से गठबंधन को रोकने के निर्देश मिले थे।
आलोचना और समर्थन
राज्यपाल पद से हटने के बाद, सत्यपाल मलिक मोदी सरकार के मुखर आलोचकों में से एक बन गए। उन्होंने बार-बार कहा कि सरकार ने किसानों का अपमान किया और यदि समय पर बात की गई होती, तो कई किसानों की जानें बचाई जा सकती थीं। उन्होंने पुलवामा हमले के संदर्भ में गंभीर आरोप लगाए कि सीआरपीएफ जवानों को एयरलिफ्ट करने की मांग को ठुकरा दिया गया था।
हालांकि, उनके आलोचकों का कहना है कि उन्होंने राज्यपाल रहते चुप्पी साधे रखी और पद से हटने के बाद मुखर हो गए, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को दर्शाता है। उनके समर्थक उन्हें "भीतर से टूटा हुआ लेकिन सच्चा राष्ट्रवादी" मानते हैं, जिसने सत्ता के दबाव में नहीं झुका।