पाकिस्तान की चिंताएँ: चेनाब नदी के जलप्रवाह में बदलाव पर भारत का स्पष्ट रुख

पाकिस्तान ने चेनाब नदी के जल प्रवाह में बदलाव को लेकर चिंता जताई है, जबकि भारत ने सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया है। इस स्थिति में पाकिस्तान की कृषि और अर्थव्यवस्था पर गंभीर खतरे की आशंका है। भारत का स्पष्ट रुख है कि जब तक सीमा पार आतंकवाद जारी रहेगा, तब तक पाकिस्तान के साथ बातचीत संभव नहीं है। जानें इस जटिल मुद्दे के पीछे की पूरी कहानी और दोनों देशों के बीच जल प्रबंधन के विवाद का क्या असर हो सकता है।
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पाकिस्तान की चिंताएँ और भारत का रुख

सिंधु जल संधि के निलंबन के बाद पाकिस्तान एक बार फिर चिंतित नजर आ रहा है। इस बार उसकी चिंता चेनाब नदी के जल प्रवाह में बदलाव को लेकर है। पाकिस्तान का कहना है कि भारत ने चेनाब के जल प्रवाह में अचानक परिवर्तन किया है, जिससे उसकी कृषि, खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिति पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। पाकिस्तान के सिंधु जल आयुक्त ने इस मुद्दे पर भारत को पत्र लिखकर स्पष्टीकरण मांगा है। इस्लामाबाद के विदेश कार्यालय के प्रवक्ता ताहिर हुसैन अंद्राबी ने कहा कि चेनाब नदी में जल प्रवाह में कमी ऐसे समय में हो रही है, जब पाकिस्तान का कृषि चक्र महत्वपूर्ण दौर में है। उन्होंने भारत से अपील की है कि वह एकतरफा जल प्रबंधन से बचे और सिंधु जल संधि के नियमों का पालन करे।


हालांकि, भारत का रुख इस मामले में स्पष्ट है। अप्रैल 2025 में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत ने सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में स्पष्ट कहा था कि "खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते।" भारत का कहना है कि जब तक सीमा पार आतंकवाद जारी रहेगा, तब तक पाकिस्तान के साथ बातचीत संभव नहीं है और न ही पुराने समझौतों का पालन उसी भावना से किया जा सकता है।


इस बीच, भारत जम्मू-कश्मीर में चेनाब नदी पर सावलकोट जलविद्युत परियोजना सहित कई योजनाओं को तेजी से आगे बढ़ा रहा है। 1,856 मेगावाट क्षमता वाली यह परियोजना पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त कर चुकी है। भारत का तर्क है कि सिंधु जल संधि के तहत उसे पश्चिमी नदियों, जैसे सिंधु, झेलम और चेनाब पर जलविद्युत उत्पादन का पूरा अधिकार है। दशकों तक इन नदियों का पानी पाकिस्तान की ओर बहता रहा, जबकि भारत अपनी क्षमता का केवल एक छोटा हिस्सा ही उपयोग कर सका।


पानी अब एक दबाव का उपकरण बन चुका है और पाकिस्तान चिंतित है। पाकिस्तान का यह विलाप वास्तव में डर का संकेत है। दशकों तक जिस सिंधु जल संधि को वह भारत के खिलाफ ढाल के रूप में इस्तेमाल करता रहा, अब उसी के निलंबन ने इस्लामाबाद की नींद उड़ा दी है। चेनाब के जल प्रवाह में बदलाव का आरोप कोई तकनीकी चिंता नहीं, बल्कि एक रणनीतिक घबराहट का संकेत है। 1960 की सिंधु जल संधि भारत की उदारता का प्रतीक थी, लेकिन अब यह एक रणनीतिक भूल भी साबित हो रही है।


अब हालात बदल चुके हैं। पहलगाम हमले के बाद सिंधु जल संधि का निलंबन यह स्पष्ट करता है कि रणनीतिक सहनशीलता की सीमा समाप्त हो चुकी है। सावलकोट जैसी परियोजनाएँ पाकिस्तान को इसलिए चुभ रही हैं क्योंकि वे भारत की जल-रणनीति का प्रतीक हैं। जम्मू-कश्मीर में कृषि को पानी मिलेगा, ऊर्जा उत्पादन बढ़ेगा और स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। यह विकास नहीं, बल्कि सामरिक सशक्तिकरण है। सामरिक दृष्टि से देखें तो पानी अब भारत के लिए केवल एक प्राकृतिक संसाधन नहीं रह गया है, बल्कि यह दबाव का एक वैध उपकरण बन चुका है। भारत केवल अपने अधिकारों का प्रयोग कर रहा है, और यही पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा झटका है। उसकी कृषि, राजनीति और स्थिरता, सब कुछ सिंधु प्रणाली पर निर्भर है।


पाकिस्तान की समस्या यह है कि वह हर अंतरराष्ट्रीय समझौते को स्थायी सुरक्षा बीमा मान लेता है, चाहे उसका व्यवहार कितना ही आक्रामक क्यों न हो। लेकिन नई दिल्ली अब इस भ्रम को तोड़ रही है। संधियाँ स्थिर नहीं होतीं; वे व्यवहार से जीवित रहती हैं। और जब व्यवहार आतंक से भरा हो, तो संधियाँ दम तोड़ देती हैं। यह समय पाकिस्तान के लिए आत्ममंथन का है। आतंक के कारखाने बंद करना, वांछित आतंकियों को सौंपना और वास्तविक शांति की पहल करना, यही एकमात्र रास्ता है। अन्यथा भारत की जल-रणनीति और अधिक आक्रामक, संगठित और प्रभावी होती जाएगी। संदेश स्पष्ट है कि भारत अब इतिहास की गलतियों को ढोने के मूड में नहीं है। पानी बहेगा लेकिन शर्तों पर, और शर्तें अब नई दिल्ली तय करेगी।