पश्चिम बंगाल में दुर्गापूजा पंडालों के माध्यम से राजनीतिक संदेश
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के करीब आते ही दुर्गापूजा पंडालों में राजनीतिक संदेशों का समावेश हो रहा है। तृणमूल कांग्रेस की पहचान की राजनीति के तहत, पंडालों की थीम में बंगाली अस्मिता और सांस्कृतिक धरोहर को उजागर किया जा रहा है। इस बार के पंडालों में 'अमी बंगला बोल्छि' जैसी थीमें शामिल हैं, जो भाषाई पहचान से जुड़ी हैं। भाजपा और विपक्षी दलों के बीच इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस भी तेज हो गई है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ये सांस्कृतिक संदेश आगामी चुनावों में मतदाताओं को प्रभावित कर पाएंगे।
Aug 11, 2025, 16:29 IST
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दुर्गापूजा पंडालों में राजनीतिक संदेश
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में अब एक साल से भी कम समय रह गया है, जिससे राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तेज हो गए हैं। विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर राजनीतिक संदेश फैलाए जा रहे हैं। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने पहचान की राजनीति पर एक विशेष अभियान शुरू किया है, जिसका प्रभाव इस वर्ष कोलकाता और अन्य क्षेत्रों में दुर्गापूजा पंडालों की थीम में दिखाई देगा। इस बार के पंडालों में एक असामान्य लेकिन गहरा राजनीतिक संदेश होगा, जो अन्य राज्यों में बंगालियों के साथ हो रहे कथित अत्याचार और उन्हें 'बांग्लादेशी' कहे जाने के खिलाफ है। आयोजकों का कहना है कि यह केवल धार्मिक उत्सव की सजावट नहीं है, बल्कि बंगाली पहचान, सांस्कृतिक धरोहर और राजनीतिक जागरूकता का एक सशक्त प्रदर्शन है।
कई पंडाल समितियों ने बंगाली भाषी भारतीयों के योगदान और उनकी ऐतिहासिक भूमिका को उजागर करते हुए थीम बनाई हैं। 'अमी बंगला बोल्छि' (मैं बांग्ला में बोल रहा हूँ) जैसी थीम सीधे भाषाई पहचान से जुड़ी हैं। इसके अलावा, विभाजन के शरणार्थियों, भाषा के आधार पर निर्वासन और बंगाल के प्राचीन इतिहास जैसी अवधारणाएँ लोकस्मृति को जागृत करती हैं और वर्तमान विवादों को ऐतिहासिक संदर्भ देती हैं। रवींद्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय और फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसे प्रतीकों के माध्यम से यह संदेश दिया जा रहा है कि बंगाल की सांस्कृतिक पहचान भारत की सामूहिक विरासत का हिस्सा है।
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असम में NRC और 'घुसपैठ' पर बहस ने भाषा-आधारित पहचान के मुद्दे को संवेदनशील बना दिया है। दुर्गापूजा जैसे विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त उत्सव में इस मुद्दे को शामिल करना स्पष्ट रूप से राजनीतिक संकेत देता है। टीएमसी लंबे समय से बंगाली पहचान और 'बाहरी बनाम बंगाली' विमर्श पर राजनीति कर रही है, और इस प्रकार की थीम्स उसके नैरेटिव को मजबूती प्रदान कर सकती हैं।
भाजपा ने राज्य में 'राष्ट्रीय एकीकरण' और 'घुसपैठ विरोधी' नीति को बढ़ावा दिया है, लेकिन इन थीमों के चलते उसे यह आरोप झेलना पड़ सकता है कि वह बंगालियों के साथ भेदभाव की अनदेखी कर रही है। विपक्षी वाम दल और कांग्रेस इसे 'संस्कृतिकरण बनाम राजनीतिकरण' के रूप में पेश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि देश के कुछ हिस्सों में, राज्य के लोगों को यह साबित करने के लिए सबूत देने पड़ते हैं कि वे भारतीय हैं, और बांग्ला बोलने पर उन्हें 'विदेशी' करार दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि यदि कोई अवैध प्रवासी है तो केंद्र सरकार कार्रवाई कर सकती है, लेकिन भारतीय नागरिकों को बांग्लादेश क्यों भेजा जाएगा।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के संदर्भ में इस तरह की थीमों का उपयोग एक सॉफ्ट पॉलिटिकल कैम्पेन की तरह काम कर सकता है। शहरी मतदाताओं के बीच यह बंगाली गौरव और पहचान के मुद्दे को भावनात्मक रूप से मजबूत करेगा। ग्रामीण इलाकों में, जहाँ प्रवासी मजदूरों की समस्याएँ सीधे अनुभव का हिस्सा हैं, यह भाषाई असुरक्षा को राजनीतिक मुद्दा बना सकता है। यह राज्य बनाम केंद्र का विमर्श भी खड़ा कर सकता है, खासकर यदि थीमों में 'अन्य राज्यों में बंगालियों पर अत्याचार' का चित्रण प्रमुख रहा।
इस वर्ष दुर्गापूजा पंडालों में जो थीम देखने को मिलेंगी, वे केवल कला या संस्कृति की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि समकालीन राजनीतिक विमर्श का मंच भी होंगी। यह स्पष्ट है कि उत्सव के बहाने एक गहरी राजनीतिक कथा बुनी जा रही है, जो चुनावी मौसम के नज़दीक आते-आते और भी तेज़ हो सकती है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यह सांस्कृतिक संदेश मतदाताओं को प्रभावित कर पाता है या केवल सांस्कृतिक जागरूकता तक सीमित रहता है।