देवरा यात्रा: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक

देवरा यात्रा उत्तराखंड की एक अनोखी परंपरा है, जिसमें कुल देवियाँ विवाहित बेटियों के ससुराल जाकर उनका हाल-चाल पूछती हैं। यह यात्रा सांस्कृतिक समृद्धि और देवी के आशीर्वाद का प्रतीक है। जानें इस यात्रा के महत्व और इसकी विशेषताओं के बारे में, जो इसे अन्य परंपराओं से अलग बनाती हैं।
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देवरा यात्रा: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक

उत्तराखंड की आध्यात्मिक यात्रा

देवरा यात्रा: उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक


देवरा यात्रा, उत्तराखंड


उत्तराखंड की आध्यात्मिक यात्रा: देवभूमि उत्तराखंड अपनी सांस्कृतिक विविधता और देवी-देवताओं की अनूठी आस्थाओं के लिए जानी जाती है। इनमें से एक महत्वपूर्ण परंपरा है देवरा यात्रा, जो विवाहित बेटियों के सम्मान और उनके सुख-समृद्धि का प्रतीक है। इस विशेष आयोजन में कुल देवियाँ स्वयं बेटियों के ससुराल जाकर उनका हाल-चाल पूछती हैं और पूरे परिवार को आशीर्वाद देती हैं। यह यात्रा कभी-कभी होती है, लेकिन कई गांवों में यह दशकों बाद आयोजित की जाती है, जिससे गांवों में उत्सव का माहौल बन जाता है।


विवाहित बेटियों के सम्मान की परंपरा

देवरा यात्रा का विशेष महत्व उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों में है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, इन यात्राओं में कुल देवियाँ गांव की विवाहित बेटियों का हाल जानने के लिए उनके ससुराल जाती हैं।


चमोली का संदेश: चमोली के कुलागना गांव की माँ अनसूया 51 साल के लंबे अंतराल के बाद इस यात्रा पर निकली हैं। माँ अनसूया छह महीने तक उन सभी गांवों में जाएंगी, जहां ‘खखला’ की बेटियों का ससुराल है।


रुद्रप्रयाग का न्योता: इसी प्रकार, रुद्रप्रयाग के फलासी गांव से 25 साल बाद 23 नवंबर को और गुप्तकाशी के चारों देवल से 22 साल बाद माँ चंडिका बाई 21 नवंबर को गांव की बेटियों के ससुराल जाएंगी।


कालीमठ की कालीमाई: सिद्धपीठ कालीमठ की कालीमाई भी सात दिसंबर से बेटियों के गांव में भ्रमण पर निकलेंगी। बेटियों के ससुराली पक्ष भी अपनी कुल देवी के इस आगमन को एक बड़े सम्मान के रूप में देखते हैं और यात्रा के अभिनंदन व स्वागत की तैयारियों में जुटे हुए हैं।


देवरा यात्रा की तपस्या

देवरा यात्रा की अवधि गांव और देवी की परंपरा के अनुसार भिन्न होती है। यह एक महीने से लेकर छह महीने तक चल सकती है, और कई बार यह अवधि इससे भी अधिक हो जाती है। यात्रा के दौरान, देवी की डोली गांव की हर विवाहित बेटी के ससुराल जाती है। यह यात्रा केवल भ्रमण नहीं है, बल्कि एक कठोर तपस्या है। यात्रा में शामिल लोगों को कड़े नियमों का पालन करना होता है। पहाड़ों पर कड़ाके की ठंड और दुर्गम रास्तों पर यात्री नंगे पैर चलते हैं। यात्रा के दौरान, श्रद्धालु केवल एक ही समय भोजन करते हैं और सात्विक जीवन जीते हैं।


देवरा यात्रा का महत्व

यह परंपरा है कि हर साल शीतकाल में विवाहित बेटियां अपने मायके की कुल देवी को अपने ससुराल आने का न्योता देती हैं। हालांकि, यह यात्रा इतनी भव्य और लंबी होती है कि हर साल इसका आयोजन संभव नहीं हो पाता, इसीलिए जब यह निकलती है, तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। भ्रमण का समय पूरा होने के बाद, देवरा यात्रा की डोली फिर से देवी के मूल मंदिर पहुँचती है, जहां एक भव्य भण्डारा (सामूहिक भोज) के साथ यात्रा का सफलतापूर्वक समापन होता है। इसलिए देवरा यात्रा उत्तराखंड की सांस्कृतिक और भावनात्मक समृद्धि का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि यहां लोक देवी-देवताओं को केवल पूजनीय शक्तियों के रूप में नहीं, बल्कि परिवार के एक अभिन्न अंग के रूप में देखा जाता है, जो सदियों बाद भी अपनी ‘बेटियों’ का हाल जानने और उन्हें आशीर्वाद देने उनके द्वार तक आते हैं।