दिल्ली में वायु प्रदूषण: एक गंभीर स्वास्थ्य संकट

दिल्ली में वायु प्रदूषण एक गंभीर स्वास्थ्य संकट बन चुका है, जो हर साल लाखों लोगों की जान ले रहा है। यह समस्या केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय से भी जुड़ी है। प्रदूषण के मुख्य स्रोतों में वाहनों का धुआं और पराली जलाना शामिल हैं। सरकारें इस मुद्दे पर समय-समय पर जागरूक होती हैं, लेकिन स्थायी समाधान की कमी है। जानें इस संकट के प्रभाव और इसके समाधान के लिए आवश्यक कदम।
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वायु प्रदूषण का बढ़ता खतरा

दिल्ली में वायु प्रदूषण: एक गंभीर स्वास्थ्य संकट


प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, मानव जीवन पाँच मुख्य तत्वों से निर्मित है: पर्यावरण, भौतिक शरीर, प्राण, मन और विज्ञानमय कोश। इनमें सबसे बाहरी परत हमारा पर्यावरण है, जो हमारे जीवन की सुरक्षा का पहला स्तर है। जब यह परत प्रदूषित होती है, तो अन्य स्तर भी प्रभावित होते हैं। वर्तमान में, वायु प्रदूषण हमारे अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है। यह खतरा अदृश्य है, लेकिन हर सांस के साथ हमारे अंदर प्रवेश कर रहा है।


जैसे ही सर्दी का मौसम आता है, दिल्ली और उसके आस-पास का क्षेत्र एक बार फिर जहरीली धुंध में ढक जाता है। यह समस्या नई नहीं है, लेकिन इसकी गंभीरता हर साल बढ़ती जा रही है। सुबह की हवा अब ताजगी नहीं, बल्कि घुटन का अनुभव कराती है। बच्चे और बुजुर्ग सभी इसके दुष्प्रभावों का सामना कर रहे हैं। सांस लेना कठिन हो गया है, आँखों में जलन और गले में खराश आम हो गई है।


वैज्ञानिक आंकड़ों के अनुसार, वायु प्रदूषण अब एक 'साइलेंट किलर' बन चुका है, जो हर साल लगभग 79 लाख लोगों की जान लेता है। इनमें से लगभग 20 लाख मौतें भारत में होती हैं, जो किसी महामारी से कम नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार, भारत की हवा 10 गुना अधिक प्रदूषित है। पिछले वर्ष, भारत चार बार दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों की सूची में शीर्ष पाँच में रहा। 2023 में, हर आठवीं मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, जो हमारे विकास मॉडल पर सवाल उठाती है।


यदि प्रदूषण के स्रोतों पर ध्यान दिया जाए, तो स्थिति और स्पष्ट होती है। वाहनों से निकलने वाला धुआं लगभग 27 प्रतिशत प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है, जबकि पराली जलाने से करीब 17 प्रतिशत प्रदूषण बढ़ता है। निर्माण स्थलों से उड़ती धूल और सड़क की गंदगी भी हवा को जहरीला बना रही है। प्रदूषण के कई कारण हैं, लेकिन समाधान के प्रयास बहुत कम हैं।


हर साल की तरह, सरकारें तब जागती हैं जब धुंध का पर्दा आसमान पर छा जाता है। पराली जलाने के समय अचानक बैठकों और योजनाओं की बाढ़ आ जाती है। लेकिन जैसे ही मौसम बदलता है, यह मुद्दा फाइलों में दब जाता है। यह मौसमी चिंता हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है।


वायु प्रदूषण केवल पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय का भी प्रश्न है। यह सबसे पहले गरीबों और बच्चों को प्रभावित करता है। खुले में काम करने वाले श्रमिक और झुग्गियों में रहने वाले परिवार इस अदृश्य जहर के सबसे बड़े शिकार हैं। देश की उत्पादकता घटती है, स्वास्थ्य खर्च बढ़ता है और जीवन प्रत्याशा कम होती जा रही है।


समस्या का समाधान असंभव नहीं है। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। औद्योगिक उत्सर्जन पर कड़ी निगरानी, स्वच्छ ईंधन नीति, सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, हरित उद्योगों को प्रोत्साहन और पराली निपटान के व्यावहारिक विकल्प ये कदम वायु प्रदूषण को कम कर सकते हैं।


दुर्भाग्य से, सरकारें इन उपायों को स्थायी रूप से लागू करने से बचती हैं, क्योंकि इससे तत्काल राजनीतिक लाभ नहीं मिलता। वोट बैंक की राजनीति के आगे जनस्वास्थ्य की चिंता गौण हो जाती है। आवश्यकता है कि वायु प्रदूषण को केवल 'सर्दियों की खबर' नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आपातस्थिति के रूप में देखा जाए।


हमें यह समझना होगा कि स्वच्छ हवा कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक मूलभूत अधिकार है। जब तक शासन, उद्योग और समाज तीनों स्तरों पर संयुक्त प्रयास नहीं करेंगे, तब तक यह विषैली हवा लौटती रहेगी और लाखों लोग चुपचाप अपनी जान गंवाते रहेंगे। वास्तविक विकास वही है जो जीवन की गुणवत्ता को सुधारता है। और जब सांस ही विषैली हो, तो कोई भी विकास सार्थक नहीं कहा जा सकता।


अब समय आ गया है कि हम केवल आंकड़ों पर नहीं, बल्कि अपनी सांसों पर ध्यान दें- क्योंकि स्वच्छ हवा ही जीवन का पहला और अनमोल उपहार है।