गरुड़ पुराण में पिंडदान का महत्व: मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा

गरुड़ पुराण, जो सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, में पिंडदान के महत्व को विस्तार से समझाया गया है। यह प्रक्रिया आत्मा की भूख और प्यास को शांत करने के लिए 10 दिनों तक की जाती है। जानें कि कैसे पिंडदान से आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है और इसके न करने पर क्या परिणाम हो सकते हैं। इस लेख में हम गरुड़ पुराण की शिक्षाओं के माध्यम से मृत्यु के बाद के संस्कारों की गहराई में जाएंगे।
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गरुड़ पुराण में पिंडदान का महत्व: मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा

गरुड़ पुराण का परिचय


गरुड़ पुराण, सनातन धर्म के 18 प्रमुख पुराणों में से एक है। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु और उनके वाहन गरुड़ के बीच संवाद के माध्यम से नीति, धर्म, तप, यज्ञ, ज्ञान और जीवन के नियमों की शिक्षाएं दी गई हैं। इसके अलावा, इसमें मृत्यु के बाद के संस्कारों, आत्मा की यात्रा और विभिन्न लोकों का विस्तृत वर्णन किया गया है। विशेष रूप से, अंतिम संस्कार, पिंडदान और तेरहवीं संस्कार का महत्व भी समझाया गया है।


पिंडदान का महत्व

गरुड़ पुराण के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा 13 दिनों तक अपने परिवार के निकट रहती है। इस दौरान आत्मा भूख और प्यास से व्याकुल होती है, और उसे शांति प्रदान करने के लिए 10 दिनों तक पिंडदान किया जाता है। यह प्रक्रिया आत्मा के सूक्ष्म शरीर के निर्माण का हिस्सा मानी जाती है, जो अंगूठे के आकार का होता है।


आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति

पुराण में वर्णित है कि पहले दिन के पिंडदान से आत्मा का सिर बनता है, दूसरे दिन गर्दन और कंधे, तीसरे दिन हृदय, चौथे दिन पीठ, पांचवें दिन नाभि, छठे और सातवें दिन कमर और निचला हिस्सा, आठवें दिन पैर और नौवें तथा दसवें दिन भूख और प्यास की अनुभूति होती है। ग्यारहवें और बारहवें दिन आत्मा को भोजन दिया जाता है। तेरहवें दिन जब मृतक के परिजन 13 ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, तब आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है।


पिंडदान न करने पर परिणाम

यह भी कहा गया है कि जिन मृतकों के लिए पिंडदान नहीं किया जाता, उनकी आत्मा को तेरहवें दिन यमदूत पकड़कर यमलोक ले जाते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म में पिंडदान को अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है।