कश्मीर की पारंपरिक भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला: सदियों से सुरक्षित

कश्मीर की पारंपरिक भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला सदियों से भूकंपों का सामना कर रही है। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे कश्मीरी कारीगरों द्वारा विकसित तकनीकें आज भी प्रभावी हैं। 'तक' तकनीक, सिडर लकड़ी का उपयोग, और अन्य विशेषताएँ इस वास्तुकला को अद्वितीय बनाती हैं। जानें कैसे ये इमारतें भूकंप के दौरान सुरक्षित रहती हैं और आधुनिक निर्माण शैलियों की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित होती हैं।
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कश्मीर की पारंपरिक भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला: सदियों से सुरक्षित

कश्मीर की अद्भुत भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला


भूकंप प्राकृतिक आपदाएँ हैं जो पल भर में सबसे मजबूत इमारतों को भी ध्वस्त कर सकती हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कश्मीर में सैकड़ों साल पहले बनी इमारतें आज भी खड़ी हैं और भूकंप से लगभग अप्रभावित हैं? यह कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि कश्मीर की पारंपरिक भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला का प्रमाण है, जिसे स्थानीय कारीगरों ने कुशलता और प्रतिभा के साथ विकसित किया है।

कश्मीर की पारंपरिक भूकंप-प्रतिरोधी वास्तुकला: सदियों से सुरक्षित

कश्मीर की 'तक' तकनीक
कश्मीर में पुरानी इमारतों में 'तक' नामक तकनीक का उपयोग किया गया था। 'तक' का अर्थ है ईंट के खंभों के बीच की खिड़कियाँ और स्थान। इस निर्माण शैली में दीवारों और फर्श को लकड़ी की परतों से जोड़ा गया था। यह लकड़ी की परत पूरी इमारत को भूकंप के दौरान संतुलित रखती थी, जिससे दीवारें लचीली हो जाती थीं और झटकों को अवशोषित करती थीं।

सिडर लकड़ी का चमत्कार
कश्मीरी घरों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता सिडर लकड़ी थी। यह लकड़ी न केवल मजबूत है, बल्कि समय के साथ सिकुड़ने या दरारें पड़ने की संभावना भी कम होती है। यह लकड़ी दीवारों, बीमों और छत में उपयोग की जाती थी। दीवारें बाहरी रूप से प्लास्टर की जाती थीं, लेकिन पूरी संरचना अंदर लकड़ी पर टिकी होती थी। यही कारण है कि इमारतें भूकंप के दौरान पेड़ों की तरह झूलती हैं और फिर अपनी जगह पर लौट आती हैं।

कश्मीरी सामाजिक स्थिति का माप
कश्मीर में बालस्ट्रेड तकनीक न केवल ताकत का प्रतीक थी, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतीक थी। जितने अधिक बालस्ट्रेड (दरवाजे और खिड़कियाँ) होते, घर उतना बड़ा और उसकी स्थिति उतनी ही ऊँची होती। श्रीनगर में प्रसिद्ध जलाली हाउस इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें 12 बालस्ट्रेड हैं। यह घर आज भी इस तकनीक के कारण खड़ा है।

धज्जी दीवारी और कीटर क्रिबेज
बालस्ट्रेड के अलावा, कश्मीरी कारीगरों ने दो अन्य तकनीकों का उपयोग किया: धज्जी दीवारी और कीटर क्रिबेज। धज्जी दीवारी में लकड़ी और ईंटों को जाल के समान तरीके से जोड़ा गया, जिससे दीवारें हल्की लेकिन मजबूत बन गईं। वहीं, कीटर क्रिबेज तकनीक का उपयोग बड़े भवनों को टिकाऊ बनाने के लिए किया गया। इन सभी शैलियों में एक बात समान थी: लकड़ी का विवेकपूर्ण उपयोग।

झूलते घर और भूकंप से बची दीवारें

2005 में कश्मीर में आए भूकंप ने हजारों जिंदगियाँ ले लीं और कई आधुनिक स्टील-कंक्रीट की इमारतें ध्वस्त हो गईं। आश्चर्य की बात यह है कि स्लेट और फटी दीवारों वाले घर लगभग अप्रभावित रहे। यह इस प्राचीन तकनीक की प्रासंगिकता को साबित करता है।

सदियों से भूकंपों का सामना करती यह वास्तुकला
यदि आप श्रीनगर में खानकाह-ए-मौला या अन्य पुरानी मस्जिदों को देखें, तो आप पाएंगे कि उनकी छतें पैगोडा शैली में हैं—बहु-स्तरीय, ऊँची और शंक्वाकार। ये इमारतें भूकंप के दौरान झूलती हैं, लेकिन गिरती नहीं हैं। यह पारंपरिक वास्तुकला की सबसे बड़ी ताकत है।

भारतीय कारीगरों की अनोखी देन

कश्मीर की ये इमारतें न केवल वास्तुकला की उत्कृष्टता के उदाहरण हैं, बल्कि भारतीय कारीगरों की दूरदर्शिता और कौशल का प्रमाण भी हैं। जब आधुनिक निर्माण शैलियाँ बार-बार भूकंप में विफल हो रही हैं, तब कश्मीर की यह सदियों पुरानी तकनीक सुरक्षित और टिकाऊ वास्तुकला का नया मार्ग प्रस्तुत करती है।

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