उच्चतम न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण नीतियों पर राज्यों को चेताया

उच्चतम न्यायालय ने राज्यों को 'जमीन के बदले जमीन' नीतियों के प्रति चेतावनी दी है, यह बताते हुए कि ऐसी योजनाएं केवल दुर्लभतम मामलों में लागू होनी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि भूमि अधिग्रहण के मामलों में आजीविका के अधिकार से वंचित होने का तर्क टिकने योग्य नहीं है। यह निर्णय हरियाणा सरकार द्वारा दायर मुकदमे पर आधारित है, जिसमें विस्थापितों के पुनर्वास के लिए नीतियों की आलोचना की गई है। जानें इस महत्वपूर्ण फैसले के बारे में और क्या कहा गया है।
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उच्चतम न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण नीतियों पर राज्यों को चेताया

भूमि अधिग्रहण नीतियों पर न्यायालय का निर्देश

उच्चतम न्यायालय ने राज्यों को उनके 'जमीन के बदले जमीन' संबंधी नीतियों के प्रति सावधान करते हुए कहा है कि ऐसी योजनाएं केवल 'दुर्लभतम मामलों' में लागू की जानी चाहिए।


न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि राज्य सरकार के भूमि अधिग्रहण का विरोध करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आजीविका के अधिकार से वंचित होने का तर्क 'टिकने वाला' नहीं है।


पीठ ने हरियाणा सरकार द्वारा दायर मुकदमे को सभी राज्यों के लिए 'आँखें खोलने वाला' करार दिया। यह सुनवाई हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के संपदा अधिकारी और अन्य द्वारा दायर याचिकाओं पर हो रही थी, जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2016 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसने विस्थापितों के पक्ष में निचली अदालत के आदेशों को बरकरार रखा था।


न्यायमूर्ति पारदीवाला ने 14 जुलाई को 88 पृष्ठों के अपने निर्णय में कहा, 'हमने स्पष्ट किया है कि भूमि अधिग्रहण के मामलों में अनुच्छेद 21 के तहत आजीविका के अधिकार से वंचित होने का तर्क टिकने योग्य नहीं है।'


उच्च न्यायालय ने उन विस्थापित भूस्वामियों को 2016 की पुनर्वास नीति के तहत लाभ पाने का हकदार माना, जिनकी भूमि हरियाणा के अधिकारियों ने सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अधिगृहीत की थी, न कि 1992 की अधिक रियायती योजना के तहत।


यह निर्णय हरियाणा की भूमि अधिग्रहण संबंधी 'बेहद असामान्य नीति' की आलोचना करता है, जिसके तहत यदि सरकार सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए भूमि अधिग्रहण करती है, तो वह विस्थापितों को वैकल्पिक भूमि के भूखंड प्रदान करती है।


शीर्ष अदालत ने कहा कि केवल दुर्लभतम मामलों में ही सरकार विस्थापित व्यक्तियों को मुआवज़ा देने के अलावा उनके पुनर्वास के लिए कोई योजना शुरू करने पर विचार कर सकती है।


पीठ ने कहा, 'कभी-कभी राज्य सरकार अपनी प्रजा को खुश करने के लिए अनावश्यक योजनाएं पेश करती है और अंततः मुश्किलों में फंस जाती है। इससे अनावश्यक रूप से कई मुकदमेबाज़ी को बढ़ावा मिलता है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण यह है।'


पीठ ने यह भी कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि सभी मामलों में मुआवज़े के अलावा संपत्ति मालिकों का पुनर्वास भी जरूरी हो।


पीठ ने कहा, 'सरकार द्वारा उठाए गए किसी भी लाभकारी कदम को केवल भूस्वामियों के प्रति निष्पक्षता और समता के मानवीय दृष्टिकोण से निर्देशित किया जाना चाहिए।'


यह विवाद 1990 के दशक की शुरुआत में हरियाणा सरकार द्वारा अधिगृहीत भूमि से संबंधित है। यद्यपि भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत मुआवज़ा दिया गया था, इसके बावजूद एक समानांतर राज्य नीति के तहत विस्थापितों को पुनर्वास भूखंड देने का भी वादा किया गया था।