इलाहाबाद उच्च न्यायालय का सर्वोच्च न्यायालय को 'हैंड्स-ऑफ' नीति अपनाने का सुझाव

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय से 'हैंड्स-ऑफ' नीति अपनाने का आग्रह किया है, जिससे न्यायिक पदोन्नति में असमानता पर चर्चा हो रही है। वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने संविधान के अनुच्छेद 227 का हवाला देते हुए कहा कि जिला न्यायपालिका पर पर्यवेक्षण का अधिकार उच्च न्यायालय को है। इस विवाद में न्यायिक अधिकारियों के बीच असंतोष और संविधानिक अधिकारों के संतुलन की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। क्या सर्वोच्च न्यायालय अपनी भूमिका सीमित रखेगा या हस्तक्षेप करेगा? जानें इस महत्वपूर्ण मुद्दे के बारे में।
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इलाहाबाद उच्च न्यायालय का सर्वोच्च न्यायालय को 'हैंड्स-ऑफ' नीति अपनाने का सुझाव

न्यायिक व्यवस्था में असंतोष का उभार

भारत की न्यायिक प्रणाली में बढ़ते असंतोष ने बुधवार को एक नया मोड़ लिया, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय से स्पष्ट रूप से कहा कि उसे राज्य न्यायिक अधिकारियों के सेवा नियमों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यह विवाद तब शुरू हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय ने जिला न्यायाधीशों के लिए समान सेवा नियमों और पदोन्नति की दिशा में कदम उठाने का निर्णय लिया। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ इस बात पर विचार कर रही थी कि क्या जिला न्यायपालिका में पदोन्नति और भर्ती के लिए सामान्य दिशानिर्देश जारी किए जाएँ।


इलाहाबाद उच्च न्यायालय का तर्क

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 227(1) के तहत जिला न्यायपालिका पर पर्यवेक्षण का अधिकार उच्च न्यायालय को है, न कि सर्वोच्च न्यायालय को। उन्होंने यह भी कहा कि उच्च न्यायालयों को मजबूत करने का समय है, न कि कमजोर करने का। राकेश द्विवेदी ने 2017 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की पहल का भी उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा कि सेवा शर्तें और न्यायिक ढांचा हर राज्य में भिन्न हैं।


सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्टीकरण

मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्पष्ट किया कि सर्वोच्च न्यायालय का उद्देश्य उच्च न्यायालयों की शक्तियों को कम करना नहीं है, बल्कि समानता और पारदर्शिता को सुनिश्चित करना है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि वे किसी के अधिकार को नहीं छीनना चाहते, बल्कि पदोन्नति के नियमों में समानता लाने का प्रयास कर रहे हैं।


पदोन्नति के नियमों में असंगति

वर्तमान में जिला न्यायाधीशों की पदोन्नति का अनुपात कई बार बदला गया है, जिससे न्यायिक अधिकारियों में असंतोष उत्पन्न हुआ है। उदाहरण के लिए, 2002 में यह अनुपात 50:25:25 था, जो बाद में बदलकर 65:25:10 और फिर से 50:25:25 कर दिया गया।


अन्य उच्च न्यायालयों की प्रतिक्रिया

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर आपत्ति जताई है, यह कहते हुए कि मौजूदा व्यवस्था ठीक काम कर रही है। वहीं, बिहार, केरल और दिल्ली के वकीलों ने भी इस विचार का समर्थन किया कि सर्वोच्च न्यायालय को मौजूदा प्रक्रिया में बदलाव नहीं करना चाहिए।


संविधानिक अधिकारों का संतुलन

यह विवाद केवल सेवा नियमों का नहीं है, बल्कि संविधानिक अधिकारों और सीमाओं के संतुलन का भी है। अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालयों को अपने अधीनस्थ न्यायालयों पर पर्यवेक्षण का अधिकार देता है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य कार्य संवैधानिक व्याख्या और न्यायिक एकरूपता सुनिश्चित करना है।


न्यायिक प्रशासन में असंतुलन

कुछ राज्यों में न्यायिक अधिकारियों को जिला जज बनने में 20 वर्ष लगते हैं, जबकि वकील केवल 10 वर्ष के अनुभव के साथ परीक्षा देकर उसी पद पर पहुँच जाते हैं। यह असंतुलन न्यायिक करियर में निराशा और प्रशासनिक असमानता को जन्म देता है।


संविधानिक संघवाद पर प्रभाव

यदि सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे में गहराई से हस्तक्षेप करता है, तो इससे संविधानिक संघवाद में तनाव बढ़ सकता है। उच्च न्यायालयों की प्रशासनिक स्वायत्तता घटेगी और केंद्रीकृत न्यायिक प्रशासन की प्रवृत्ति बढ़ेगी।


सर्वोत्तम मार्ग

यदि सर्वोच्च न्यायालय पूरी तरह से 'हैंड्स-ऑफ' नीति अपनाता है, तो न्यायिक पदोन्नति में असमानता बनी रहेगी। सर्वोत्तम मार्ग यह है कि सर्वोच्च न्यायालय संविधान की सीमाओं के भीतर न्यूनतम मानक तय करे, जबकि राज्यों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार लचीलापन दिया जाए।


संविधानिक आत्ममंथन का प्रतीक

यह टकराव भारतीय न्यायपालिका के भीतर संवैधानिक आत्ममंथन का प्रतीक है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की मुखरता न्यायिक संघवाद के स्वास्थ्य की निशानी है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय की पहल न्यायिक संरचना में समानता की खोज का प्रयास है।