बिहार विधानसभा चुनाव: मुद्दों की अनदेखी और भावनाओं का खेल

बिहार विधानसभा चुनाव एक बार फिर उसी पुरानी राजनीति की ओर बढ़ रहे हैं, जहां मुद्दों की अनदेखी हो रही है। राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंक को साधने में लगे हैं, जबकि युवा रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। चुनावी रैलियों में व्यंग्य और आरोपों का बोलबाला है। क्या बिहार की जनता इस बार सही मुद्दों पर ध्यान देगी? यह चुनाव केवल सरकार बदलने का अवसर नहीं, बल्कि राज्य की दिशा तय करने का भी क्षण है।
 | 
बिहार विधानसभा चुनाव: मुद्दों की अनदेखी और भावनाओं का खेल

बिहार चुनाव की वास्तविकता

बिहार विधानसभा चुनाव एक बार फिर उसी पुरानी परंपरा की ओर बढ़ रहे हैं, जहां मुद्दों की बजाय मतों का गणित और भावनाओं का ज्वार यह तय करता है कि सत्ता किसके हाथ में जाएगी। सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों, बेरोजगारी, कृषि संकट और पलायन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे कहीं पीछे छूट गए हैं। इनकी जगह जातीय समीकरण, धार्मिक ध्रुवीकरण और नेताओं के बीच की आपसी लड़ाई ने ले ली है।


राजनीतिक दलों की रणनीतियाँ

जब बिहार को विकास की सबसे अधिक आवश्यकता है, राजनीतिक दल वही पुरानी राजनीति दोहरा रहे हैं जिसने राज्य को कई दशकों पीछे धकेल दिया। हर पार्टी अपने-अपने "वोट बैंक" को साधने में जुटी है। कुछ पिछड़ों की बात कर रहे हैं, कुछ अल्पसंख्यकों की, और कुछ युवा मतदाताओं को केवल नारों के सहारे लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। न तो कोई ठोस दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा है, और न ही यह बता पा रहा है कि बिहार को देश के औसत विकास स्तर तक कैसे पहुँचाया जाएगा।


चुनावी रैलियों का स्तर

चुनावी रैलियों में भाषणों का स्तर गिरता जा रहा है। तर्क और नीतियों की जगह व्यंग्य, आरोप और अपमान ने ले ली है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जनता भी इस तमाशे का हिस्सा बनती जा रही है। वह नेताओं से जवाब मांगने की बजाय उनकी आपसी नोकझोंक को मनोरंजन की तरह ले रही है। यही उदासीनता लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी बनती जा रही है।


बिहार की युवा स्थिति

बिहार की सच्चाई यह है कि लाखों युवा आज भी रोजगार के लिए दिल्ली, मुंबई या पंजाब की ओर पलायन कर रहे हैं। गाँवों में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ गायब हैं, शिक्षा की गुणवत्ता गिरती जा रही है, और उद्योग लगभग न के बराबर हैं। यदि चुनावी विमर्श में ये मुद्दे शामिल नहीं हो रहे हैं, तो यह न केवल राजनीतिक दलों की असफलता है, बल्कि समाज की भी।


बिहार की जनता की भूमिका

बिहार की जनता को अब इस पुराने खेल को समझना होगा। जाति, धर्म या परिवार के आधार पर वोट देने की बजाय, उसे यह देखना चाहिए कि कौन-सा दल उसके बच्चों के भविष्य की बात करता है। यदि बिहार के मतदाता इस बार भी भावनाओं में बह गए, तो राज्य एक और पाँच वर्ष पीछे चला जाएगा।


लोकतंत्र की ताकत

लोकतंत्र में वही जनता सशक्त होती है जो सवाल पूछती है और नेताओं से वादों का हिसाब मांगती है। बिहार की जनता ने कई बार परिवर्तन की लहर चलाई है; अब फिर उसी सजगता की आवश्यकता है। यह चुनाव केवल सरकार बदलने का अवसर नहीं, बल्कि बिहार की दिशा तय करने का भी क्षण है। यदि इस बार भी मुद्दे हाशिये पर रहे, तो बिहार का भविष्य फिर से वही पुराना चक्र देखेगा— वादों का अंबार और हकीकत में ठहराव। तब यह सवाल हमेशा गूंजता रहेगा: क्या बिहार सचमुच बदलना चाहता है?