खरगे की आरएसएस पर प्रतिबंध की मांग: राजनीतिक विमर्श में नया मोड़
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है, जिससे राजनीतिक विमर्श में हलचल मच गई है। उन्होंने संघ को कानून-व्यवस्था की समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया। संघ के नेता दत्तात्रेय होसबोले ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। इस लेख में आरएसएस के ऐतिहासिक योगदान और खरगे के बयान के पीछे की वैचारिक असुरक्षा पर चर्चा की गई है। जानें कैसे यह मांग समाज में विभाजनकारी असर डाल सकती है।
| Nov 1, 2025, 17:16 IST
खरगे की मांग से गरमाया राजनीतिक माहौल
कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर फिर से प्रतिबंध लगाने की मांग की है, जिससे देश के राजनीतिक संवाद में हलचल मच गई है। सरदार पटेल की जयंती के अवसर पर उन्होंने कहा कि ‘‘देश में कानून-व्यवस्था की समस्याओं के लिए संघ जिम्मेदार है’’ और ‘‘सरदार पटेल की विरासत का सम्मान तभी होगा जब संघ पर दोबारा प्रतिबंध लगे’’। यह बयान केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं है, बल्कि उस विचारधारा पर सीधा प्रहार है जिसने पिछले एक सदी से राष्ट्रनिर्माण में योगदान दिया है।
संघ की प्रतिक्रिया
संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने खरगे की मांग पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए पूछा, “किस आधार पर प्रतिबंध लगाया जाएगा? क्या राष्ट्रनिर्माण में लगे संगठन को निशाना बनाना उचित है? जनता पहले ही संघ को स्वीकार कर चुकी है।”
आरएसएस का योगदान
हालांकि खरगे या उनके सहयोगी आरएसएस के खिलाफ कितनी भी नकारात्मक बातें करें, लेकिन यह सच है कि 1925 में स्थापित होने के बाद से संघ ने सामाजिक एकता, सेवा और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जो किसी एक राजनीतिक दल की नहीं, बल्कि पूरे समाज की धरोहर हैं।
इतिहास में संघ का स्थान
भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1962 के चीन युद्ध और 1947 के विभाजन के दौरान राहत कार्यों तक, संघ ने हर संकट के समय सेवा कार्यों में अग्रणी भूमिका निभाई है। महात्मा गांधी ने संघ शिविर का निरीक्षण करते हुए कहा था कि “यहां अनुशासन और अस्पृश्यता की अनुपस्थिति देखकर मैं चकित हूं।” डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी संघ में जातिभेदरहित वातावरण की सराहना की थी। 1963 में पंडित नेहरू ने संघ को स्वतंत्रता दिवस परेड में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। ये तथ्य दर्शाते हैं कि संघ केवल एक संगठन नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक ताने-बाने में गहराई से रचा-बसा आंदोलन है।
खरगे का बयान और कांग्रेस की स्थिति
खरगे का यह बयान कांग्रेस की वैचारिक असुरक्षा को दर्शाता है। आज जब संघ का प्रभाव केवल भाजपा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वह समाज के हर वर्ग में सेवा कार्यों के माध्यम से उपस्थित है, ऐसे में प्रतिबंध की मांग जनता की भावनाओं के खिलाफ है। यह वही जनता है जो बाढ़, भूकंप या महामारी के समय ‘संघ के स्वयंसेवकों’ को राहत कार्य करते देखती है। जिस संगठन की जड़ें समाज में इतनी गहरी हों, उस पर प्रतिबंध लगाने की बात कहना वास्तव में उस समाज की नब्ज़ को न समझने के समान है।
कांग्रेस का इतिहास और संघ पर प्रतिबंध
यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस ने संघ को निशाना बनाया है। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर अस्थायी प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन न्यायिक जांच में संघ को निर्दोष पाया गया। प्रतिबंध हटने के बाद संघ पहले से अधिक मजबूत होकर उभरा। इतिहास यह दर्शाता है कि जब-जब किसी वैचारिक आंदोलन को दमन से दबाने की कोशिश की गई, वह और भी तेजी से समाज में फैला। आज की कांग्रेस शायद इस इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं है।
संघ पर प्रतिबंध का सामाजिक प्रभाव
संघ पर प्रतिबंध की मांग न केवल राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय है, बल्कि यह सामाजिक रूप से भी विभाजनकारी हो सकती है। इससे करोड़ों स्वयंसेवकों और समर्थकों में असंतोष उत्पन्न होगा, जो इसे अपनी सेवा भावना और देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न के रूप में देखेंगे। जनता के एक बड़े वर्ग के लिए संघ अब किसी राजनीतिक दल का परिशिष्ट नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक है। ऐसे संगठन पर प्रतिबंध की बात करके कांग्रेस स्वयं को जनता से और दूर धकेल सकती है।
खरगे का बयान और कांग्रेस की रणनीति
मल्लिकार्जुन खरगे का वक्तव्य कांग्रेस की उस वैचारिक थकान को उजागर करता है जो अब केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति कर रही है। देश को जोड़ने वाले संगठन को बांटने की कोशिश न केवल राजनीतिक भूल है, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति असंवेदनशीलता भी है। संघ पर प्रतिबंध की मांग वास्तव में उस समाज की भावना को चुनौती देना है जिसने वर्षों की साधना से इस संगठन को अपनाया है। जब जनता किसी विचार को स्वीकार कर चुकी हो, तब कोई भी प्रतिबंध केवल कागजों पर रह जाता है।
