बचपन की यादें: मिट्टी के खिलौनों की कहानी
खिलौनों की दुनिया

घर में चारों ओर खिलौने बिखरे हुए थे। जब मैंने उन्हें समेटना शुरू किया, तो देखा कि सभी खिलौने प्लास्टिक के हैं, और अधिकांश पर 'मेड इन चाइना' लिखा था। जब मैंने एक प्लास्टिक का चूल्हा उठाया, तो मुझे हंसी आई कि क्या कभी सोचकर बनाते हैं। तभी मेरी पोती मेरे गले में बाहें डालकर झूल गई और बोली, “दादी, यह गैस स्टोव है। क्या आपने भी बचपन में ऐसे खिलौने खेले थे? ओ दादी, बोलो।”
उसकी मीठी आवाज़ ने मेरे दिल को छू लिया। मैंने कहा, “हाँ, बेटा, हम भी खेलते थे, लेकिन हमारे पास मिट्टी के बने चूल्हे और अन्य खिलौने होते थे।” पोती ने तुरंत एक सेल से नाचती गुड़िया दिखाते हुए कहा, “देखो दादी, क्या आप हाथ से ऐसी गुड़िया बना सकती हैं?” मैंने उत्तर दिया, “हाँ, हम मिट्टी, कपड़े और रुई से और भी सुंदर गुड़िया बनाते थे। कपड़े से गुड़िया का आकार बनाकर उसमें रुई भरकर सुंदर आकृति तैयार करते थे। काले रेशम से बाल बनाते थे और उन्हें गहनों से सजाते थे। जब हम गुड़िया को बिंदी लगाते थे, तो ऐसा लगता था जैसे वह बोल उठेगी और कहेगी, ‘मेरा ब्याह रचाओ।’ हम गुड्डा भी बनाते थे, जो नृत्य मुद्रा में होते थे। जब हम 'घर-घर', 'रोटी पानी', 'घर-कुल्हड़' खेलते थे, तब गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाते थे।
हम मिट्टी का रेडियो और बस भी बनाते थे। चूहों से लेकर गाय-बैल और हाथी तक सभी खिलौने बनाते थे। बैल बनाते समय मिट्टी और तुअर की काठियों से बैलगाड़ियाँ भी तैयार कर लेते थे। खेल-खेल में पूजा का घर बनाना हो तो गणेशजी की प्रतिमा या शंकर भगवान की नाग लिपटी हुई पिंडी भी बना लेते थे। रसोई के लिए तख्त, बेलन, थाली, कटोरी, गिलास, तपेला आदि सब कुछ बनाते थे। उन दिनों अनाज घर में ही घट्टी में पीसा जाता था, तो मिट्टी की घट्टी और सिल-बट्टा भी तैयार होता था।
मेरी पोती मेरे सामने बैठ गई, उसकी बड़ी-बड़ी आँखें मेरी बातों को विस्मय से सुन रही थीं। फिर उसने उदासी से कहा, “दादी, हमारी गुड़िया से कौन शादी करेगा? अगर वह ज्यादा देर नाचेगी तो सेल खत्म हो जाएंगे और वह डेड हो जाएगी।” उसकी बात सुनकर मेरे मन में टीस उठी। इस उम्र में बच्चों को खिलौने खुशी देते हैं, लेकिन वह इस छोटे से उम्र में 'डेड' शब्द से परिचित हो गई। जबकि हमारे हाथ से बनाए खिलौने आज भी घर में सुरक्षित हैं।
बरसात के बाद मिट्टी की खदानें सूखने लगती थीं। हमारी दगड़ई बुआ माटी लेकर आती थीं और कहतीं, “लो माँय, बनाओ खिलौने।” वह मिट्टी में ईंट-कवेलू का बूरा, घोड़े की लीद और अलसी मिलाकर गूँथती थीं। चूल्हा बनाने के लिए कण्डे की राख बिछाती थीं। हम भी ऐसा ही करते थे। हमारी माँय, बाई, भाभी चूल्हे बनाती थीं। हम भी अपने खिलौने वाले छोटे-छोटे चूल्हे बना लेते थे।
खिलौनों में चूल्हा एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था। हम 'घर-घर', 'घर-कुल्हड़', 'बिटकुल (खेल में खाद्य सामग्री)-पाणी' खेलते थे। इसमें घट्टी, रई, मथनी, कढ़छी, झारा, तख्ता-बेलन, घड़ा-गुण्डी, बाल्टी, गुड्डा-गुड्डी शामिल होते थे।
हम अक्सर बुधवार को घर-घर का खेल खेलते थे। इस दिन हमारे गाँव में हाट लगता था। शाला का समय सुबह सात से ग्यारह बजे का होता था। घर के सभी लोग व्यस्त रहते थे। हम योजना बनाते थे कि कहाँ खेलेंगे और कौन-कौन खेलेगा। अगर भाइयों को भनक लगती, तो वे दौड़कर आते और कहते, “हम भी खेलेंगे, नहीं तो खेल बिगाड़ देंगे।”
भाई लोग खटिया जमाकर घर बना देते थे। बहनें सूखते साड़ी, धोती, लुंगड़े लेकर आतीं। जो भाई ज्यादा शरारत करता, उसे दाजी की धोती पहनाकर दाजी बना देते। फिर भोजन पानी का खेल शुरू होता था। कोई बहू घट्टी दल रही होती, कोई चूल्हा जलाकर पूछती थी, “सासूजी, क्या राँधा?” खेल-खेल में भोजन तैयार हो जाता था।
गुड्डा-गुड़िया के विवाह का खेल भी बहुत मजेदार होता था। इसमें हम कई गुड़ियाँ-गुड्डे बनाते थे। दूल्हा-दुल्हन को गोद में लेकर उनके पिता बैठते थे। फिर जैसे ही कहा जाता, “लाड़ा-लाड़ी सावधान, बाजा बजंत्री सावधान” तो भाई लोग थाली लोटा बघौनों को बेलन से कूटते थे।
खेल का अंत हमेशा एक जैसा नहीं होता था। कभी अच्छा, कभी बुरा। बुरे में भाई-बहन एक-दूसरे को नोंच लेते थे। लेकिन जब खेल अच्छा होता, तो सब मिलकर मजे करते थे।
मेरे बचपन के घर-घर के खेल ने मुझे इतना रमा लिया कि मैं भूल गई कि मेरी पोती क्या पूछ रही थी। उसने मेरे गाल पकड़कर पूछा, “दादी, क्या आप मुझे चूल्हा बनाना सिखा देंगी? ओ दादी, कपड़े की गुड़िया बनाना भी सिखा देना।” मैंने कहा, “मैं तुम्हें कपड़ों की सुंदर गुड़िया बना दूँगी और बनाना भी सिखा दूँगी। मिट्टी का चूल्हा भी बना दूँगी।”
