कमजोर शरीर, मजबूत इरादे: जानें बी.के.एस. अयंगर ने कैसे बदली योग की दुनिया

नई दिल्ली, 19 अगस्त (आईएएनएस)। कभी-कभी जिंदगी की शुरुआत इतनी कठिन होती है कि उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती। शरीर बीमारी से टूटा हो और घर में गरीबी का बसेरा हो, तो किसी बच्चे के लिए जीना ही सबसे बड़ा संघर्ष बन जाता है। ऐसे हालात में अक्सर लोग हार मान लेते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसी संघर्ष को अपनी सबसे बड़ी ताकत बना लेते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी बेल्लूर कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर, यानी बी.के.एस. अयंगर की है, जिन्होंने बचपन में मौत को करीब से देखा, लेकिन आगे चलकर पूरी दुनिया को जीवन जीने की कला सिखा डाली।
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कमजोर शरीर, मजबूत इरादे: जानें बी.के.एस. अयंगर ने कैसे बदली योग की दुनिया

नई दिल्ली, 19 अगस्त (आईएएनएस)। कभी-कभी जिंदगी की शुरुआत इतनी कठिन होती है कि उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती। शरीर बीमारी से टूटा हो और घर में गरीबी का बसेरा हो, तो किसी बच्चे के लिए जीना ही सबसे बड़ा संघर्ष बन जाता है। ऐसे हालात में अक्सर लोग हार मान लेते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसी संघर्ष को अपनी सबसे बड़ी ताकत बना लेते हैं। कुछ ऐसी ही कहानी बेल्लूर कृष्णमाचार सुंदरराज अयंगर, यानी बी.के.एस. अयंगर की है, जिन्होंने बचपन में मौत को करीब से देखा, लेकिन आगे चलकर पूरी दुनिया को जीवन जीने की कला सिखा डाली।

बी.के.एस. अयंगर को दुनियाभर में 'योग गुरु' के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनका सफर बेहद मुश्किलों भरा था। कर्नाटक के एक छोटे से गांव बेल्लूर में 14 दिसंबर 1918 को जन्मे अयंगर का बचपन बीमारी और भूख से भरा था। जब वे पैदा हुए, तब देश में इन्फ्लुएंजा महामारी फैली हुई थी। अयंगर भी इस बीमारी की चपेट में आए और तभी से उनका शरीर कमजोर होता चला गया।

उन्हें बचपन में मलेरिया, टाइफाइड, टीबी और कुपोषण जैसी बीमारियों से जूझना पड़ा, जिसके चलते उनका शरीर इस कदर कमजोर हो गया कि उनके हाथ-पैर हड्डियों की तरह दिखते थे। उनका पेट फूला हुआ और पीठ झुकी रहती थी।

एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद बताया था कि उस वक्त सिर को ऊपर उठाना भी एक मेहनत का काम लगता था।

घर की हालत भी कुछ बेहतर नहीं थी। वे 13 भाई-बहनों में ग्यारहवें नंबर पर थे। स्कूल में बच्चे उनका मजाक उड़ाते थे, कभी उनकी टेढ़ी पीठ को देखकर, तो कभी उनकी कमजोर टांगों को लेकर तंज कसते थे। अंग्रेजी में वह मैट्रिक की परीक्षा में फेल हो गए थे, जिसके चलते उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।

1934 में उनके बहनोई, मशहूर योगाचार्य तिरुमलाई कृष्णमाचार्य ने उन्हें मैसूर बुलाया और योग सीखने को कहा। शुरुआत आसान नहीं थी। कमजोर शरीर के कारण आसनों को करना लगभग नामुमकिन लगता था। लेकिन अयंगर ने हार नहीं मानी। उन्होंने धीरे-धीरे अभ्यास करना शुरू किया। हर दिन थोड़ा-थोड़ा करके योग ने उनके शरीर को बदलना शुरू किया।

योग के अभ्यास से उनके शरीर में ताकत आई, सांसें खुलने लगीं और पेट की बीमारी भी ठीक हो गई। योग से मिले फायदों के बाद उन्होंने तय किया कि इस विद्या को वह दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाएंगे।

उन्होंने पुणे में योग सिखाना शुरू किया, लेकिन शुरुआती वक्त बहुत कठिन रहा। कभी-कभी उन्हें दिनभर केवल पानी और चाय से काम चलाना पड़ता था, लेकिन उनके अंदर की लगन ने उन्हें कभी टूटने नहीं दिया। धीरे-धीरे लोग उनके योग के तरीकों से प्रभावित होने लगे। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर योग को इस तरह सिखाना शुरू किया कि वह हर उम्र, हर परिस्थिति, और हर बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति के लिए आसान बन गया।

आगे चलकर उनकी योग शैली 'अयंगर योग' के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध हुई। उन्होंने न केवल हजारों लोगों को बीमारी से उबारा, बल्कि योग को चिकित्सा और ध्यान के साथ जोड़कर एक नई दिशा दी। उनके बनाए आसनों और प्रॉप्स (जैसे ब्लॉक, बेल्ट) ने लाखों लोगों को योग से जोड़ा।

उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने बड़े-बड़े नागरिक सम्मानों के जरिए उन्हें सम्मानित किया। साल 1991 में उन्हें देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्मश्री' से नवाजा गया। इसके बाद 2002 में उन्हें 'पद्म भूषण' और अंततः 2014 में भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया। साल 2004 में दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका 'टाइम' ने उन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया। उनका निधन 20 अगस्त 2014 को पुणे में हुआ। 96 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली।

--आईएएनएस

पीके/केआर