लाहौर: भारत-पाकिस्तान विभाजन का ऐतिहासिक केंद्र

लाहौर, एक ऐतिहासिक शहर, जिसने भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय कई उतार-चढ़ाव देखे। इस लेख में, हम लाहौर के सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्व, विभाजन के समय की घटनाओं और इसके ऐतिहासिक किरदारों पर चर्चा करेंगे। जानें कैसे यह शहर आज भी दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण है और इसके इतिहास ने कैसे वर्तमान को आकार दिया।
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लाहौर: भारत-पाकिस्तान विभाजन का ऐतिहासिक केंद्र

लाहौर का ऐतिहासिक सफर

लाहौर, एक ऐसा शहर जो अपने इतिहास में कई उतार-चढ़ाव देख चुका है। गजनवी, मंगोल, मुगल, अफगानी, सिख और ब्रिटिश साम्राज्य ने इस शहर पर अपनी छाप छोड़ी है। हजारों वर्षों में, इसने कई बार अपना रूप बदला है, लेकिन इसकी आत्मा हमेशा जीवित रही है। इसे एक लत के रूप में देखा जाता है, जो इसकी अनोखी संस्कृति और जीवंतता को दर्शाता है।


साहित्यकार असगर वजाहत ने अपने नाटक का शीर्षक 'जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जनम्याई नई' रखा, जिससे उन्होंने लाहौर की संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास किया। विभाजन के समय, कई लेखकों ने इस शहर की संवेदनाओं को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया।


1947 में, सर सिरील रेडक्लिफ ने भारत के नक्शे पर विभाजन की रेखाएं खींचीं, जिससे लाखों लोगों की जिंदगी में स्थायी बदलाव आया। लाहौर और अमृतसर के बीच की दूरी अब एक अनमिट फासला बन गई।


पंजाब का विभाजन

17 अगस्त 1947 को लाहौर का पंजाब से अलग होना औपचारिक रूप से घोषित किया गया। उस समय पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं था, इसलिए लाहौर को शामिल किया गया। इस प्रकार, पंजाब का साझा इतिहास दो भागों में बंट गया। हिंदी भाषियों के लिए, 'चढ़दे पंजाब' भारत का पंजाब है, जबकि 'लहंदे पंजाब' पाकिस्तान का पंजाब।


लाहौर का इतिहास क्या है? इसके किरदार कौन हैं? आइए, उन दस्तावेजों को देखते हैं जो हमारे वर्तमान को समझाते हैं।


लाहौर, रावी और वाघा नदियों के किनारे बसा एक खूबसूरत शहर है। इसे भगवान राम के पुत्र लव द्वारा बसाया गया माना जाता है। यहाँ के कई महान व्यक्तित्वों का नाम लिया जाता है, जैसे राजा रणजीत सिंह और भगत सिंह।


लाहौर का राजनीतिक महत्व

भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, लाहौर एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा। 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यहाँ पूर्ण स्वराज का नारा दिया। लेकिन 11 साल बाद, मुस्लिम लीग ने यहाँ अपनी ताकत बढ़ाई।


23-24 मार्च 1940 को, मुस्लिम लीग ने लाहौर प्रस्तावना पेश की, जिसमें मुसलमानों के लिए स्वायत्त प्रांतों की मांग की गई। यह मांग बाद में पाकिस्तान के निर्माण का आधार बनी।


1945 में ब्रिटेन में चुनाव के बाद, भारतीय राजनीति में मुस्लिम लीग का दबदबा बढ़ा। इस समय, पंजाब के सिखों ने भी अपने विचार स्पष्ट किए।


लाहौर में तनाव और हिंसा

1947 में, लाहौर में तनाव बढ़ने लगा। मुस्लिम लीग के भड़काऊ भाषणों और दंगों ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। 24 फरवरी 1947 को, मुस्लिम लीग ने एक सिख कॉस्टेबल की हत्या कर दी, जिससे पंजाब में हिंसा भड़क गई।


4 मार्च 1947 को, लाहौर में दंगे भड़क उठे। पुलिस की फायरिंग में कई छात्र मारे गए। इसके बाद, लाहौर में कानून व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ गई।


जून 1947 में, जब रेडक्लिफ ने विभाजन की रेखा खींची, तब लाहौर में साम्प्रदायिक हिंसा अपने चरम पर थी।


रेडक्लिफ का विभाजन

3 जून 1947 को, भारत के अंतिम वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना का ऐलान किया। इस योजना में हिंदू और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को अलग करने का निर्णय लिया गया।


रेडक्लिफ ने लाहौर को पाकिस्तान को देने का निर्णय लिया, जबकि यह शहर भारत के लिए अधिक उपयुक्त था। उन्होंने कहा कि उनके पास सीमाओं को खींचने के लिए बहुत कम समय था।


कुलदीप नैयर के अनुसार, रेडक्लिफ ने लाहौर को पाकिस्तान को देने का निर्णय लिया, क्योंकि उन्हें लगा कि पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं होगा।