कश्मीर के अलगाववादी नेता अब्दुल गनी भट का निधन: विरासत और विवाद

प्रो. अब्दुल गनी भट, जो कश्मीर की अलगाववादी राजनीति के एक प्रमुख नेता थे, का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन के बाद विभिन्न प्रतिक्रियाएँ आई हैं, जिसमें उन्हें "संयम की आवाज़" और "संवाद का समर्थक" कहा गया। भट ने कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी राजनीतिक यात्रा और विरासत आज भी विवादित है। क्या वे वास्तव में समाधान खोजने वाले थे या अलगाववाद को वैधता दिलाने वाले? जानें इस लेख में।
 | 
कश्मीर के अलगाववादी नेता अब्दुल गनी भट का निधन: विरासत और विवाद

अब्दुल गनी भट का निधन

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के पूर्व अध्यक्ष और कश्मीर की अलगाववादी राजनीति के एक प्रमुख चेहरे, प्रो. अब्दुल गनी भट का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके निधन के बाद विभिन्न प्रतिक्रियाएँ आई हैं, जिसमें उन्हें "संयम की आवाज़" और "संवाद का समर्थक" कहा गया। हालांकि, यह स्पष्ट है कि भट ने कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, भले ही उन्हें हिंसा से दूर रहने वाले नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया हो।


शिक्षा और राजनीतिक करियर

1935 में जन्मे भट ने श्रीनगर के श्री प्रताप कॉलेज से फारसी में स्नातक की डिग्री और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। वे लंबे समय तक प्रोफेसर और वकील रहे। 1986 में, उन्होंने राजनीति में कदम रखा और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) के संस्थापक नेताओं में से एक बने। यह वह समय था जब घाटी में चुनावी धांधली और जन असंतोष ने अलगाववाद और आतंकवाद की ओर झुकाव को जन्म दिया।


अलगाववाद की नई लहर

1987 के विधानसभा चुनावों के बाद, जब एमयूएफ को सत्ता से बाहर रखा गया और व्यापक गिरफ्तारियाँ हुईं, तब अलगाववाद को नई ऊर्जा मिली। भट भी जेल गए और इसके बाद उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति से किनारा कर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में अपनी पहचान बनाई।


हुर्रियत का उदय

1990 के दशक में, जब कश्मीर आतंकवाद से प्रभावित था, हुर्रियत ने अलगाववादी एजेंडे को वैचारिक आधार प्रदान किया। भट, सैयद अली शाह गिलानी और अन्य नेताओं के साथ इस "संयुक्त मोर्चे" का हिस्सा बने, जिसने कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया।


संवाद का पक्षधर

भट को अक्सर हुर्रियत में "उदारवादी" नेता कहा गया। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की सरकारों के साथ बातचीत में भाग लिया। लेकिन यह सच है कि उन्होंने कभी भारत की संप्रभुता को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया। वे हथियार उठाने के खिलाफ थे, लेकिन अलगाववाद की विचारधारा के समर्थक बने रहे।


विभाजन और विरासत

केंद्र सरकार से बातचीत का समर्थन करने पर हुर्रियत में विभाजन हुआ। इसका अर्थ यह था कि भट का एजेंडा "भारत के भीतर कश्मीर का शांतिपूर्ण समाधान" नहीं था, बल्कि "अलगाववाद को वैधता दिलाना" था।


भट की जटिलता

भट ने लंबे समय तक बंद (हड़ताल) की राजनीति और हिंसा का विरोध किया, लेकिन उन्होंने कभी भी भारत विरोधी एजेंडे को स्पष्ट रूप से खारिज नहीं किया। उनकी भूमिका ने अलगाववाद को "बौद्धिक" और "संयमित" चेहरा दिया। उनके निधन पर उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और अन्य नेताओं ने उन्हें "संवाद का प्रतीक" बताया।


कश्मीर की राजनीति में भट का स्थान

अब्दुल गनी भट का जीवन कश्मीर की राजनीति की जटिलताओं को दर्शाता है। उन्होंने हिंसा से दूरी बनाई, लेकिन अलगाववाद की जड़ें मज़बूत करने में योगदान दिया। उनकी विरासत आज भी विवादित है। क्या वे वास्तव में समाधान खोजने वाले थे या अलगाववाद को वैचारिक चाशनी चढ़ाने वाले थे? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।