पुण्यतिथि विशेष: प्रकृति के सच्चे सेवक रॉबिन बनर्जी की कहानी, जिनकी नजर में काजीरंगा सिर्फ जंगल नहीं, एक धरोहर था

नई दिल्ली, 5 अगस्त (आईएएनएस)। वन्यजीव विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् रॉबिन बनर्जी वह शख्सियत थे, जिन्होंने न सिर्फ काजीरंगा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई, बल्कि अपने जीवन को पूरी तरह प्रकृति और वन्यजीवों को समर्पित कर दिया। असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाने वाले एक सींग वाले गैंडे की प्रसिद्धि सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में है। बहुत कम लोग जानते हैं कि रॉबिन बनर्जी के प्रयासों से ही दुनिया ने असम के एक सींग वाले गैंडे को टेलीविजन पर देखा। हर साल 6 अगस्त को रॉबिन बनर्जी को उनकी पुण्यतिथि पर याद किया जाता है।
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पुण्यतिथि विशेष: प्रकृति के सच्चे सेवक रॉबिन बनर्जी की कहानी, जिनकी नजर में काजीरंगा सिर्फ जंगल नहीं, एक धरोहर था

नई दिल्ली, 5 अगस्त (आईएएनएस)। वन्यजीव विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् रॉबिन बनर्जी वह शख्सियत थे, जिन्होंने न सिर्फ काजीरंगा को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई, बल्कि अपने जीवन को पूरी तरह प्रकृति और वन्यजीवों को समर्पित कर दिया। असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पाए जाने वाले एक सींग वाले गैंडे की प्रसिद्धि सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में है। बहुत कम लोग जानते हैं कि रॉबिन बनर्जी के प्रयासों से ही दुनिया ने असम के एक सींग वाले गैंडे को टेलीविजन पर देखा। हर साल 6 अगस्त को रॉबिन बनर्जी को उनकी पुण्यतिथि पर याद किया जाता है।

रॉबिन बनर्जी का 12 अगस्त 1908 को पश्चिम बंगाल के बहरामपुर में जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा शांतिनिकेतन में हुई, जहां वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के सबसे कम उम्र के छात्र थे। यहीं से उनमें कला और प्रकृति के प्रति प्रेम का बीज पड़ा। बाद में उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, फिर लिवरपूल (1934) और एडिनबरा (1936) में मेडिकल की उच्च शिक्षा प्राप्त की।

अंकल रॉबिन के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय की वेबसाइट पर दर्ज जानकारी के मुताबिक, 1937 में उन्होंने ब्रिटिश रॉयल नेवी जॉइन की और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी तक युद्ध क्षेत्र में कार्य किया। युद्ध के बाद भारत लौटे डॉ. बनर्जी 1952 में असम आए, जहां उन्होंने चबुआ टी एस्टेट में और बाद में धनसिरी मेडिकल एसोसिएशन, बोकाखाट में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में काम किया। इसी दौरान उन्होंने काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान का दौरा किया और यहीं से शुरू हुई एक ऐसी आत्मीय यात्रा, जो उन्हें विश्वप्रसिद्ध वन्यजीव संरक्षक बना गई।

उनका प्रकृति से प्रेम सिर्फ एक भावना नहीं, बल्कि गहराई से जुड़ा हुआ जुनून था। उन्होंने ग्रीनलैंड की बर्फीली जमीन पर घंटों ध्रुवीय भालुओं की झलक पाने के लिए समय बिताया, तो कभी प्रशांत महासागर के एक द्वीप पर तपती धूप में कोमोडो ड्रैगन को कैमरे में कैद करने के लिए बैठे रहे। लेकिन अंत में उन्हें शांति और अपनापन काजीरंगा में मिला, जहां के दुर्लभ वन्य जीव उनके सबसे अच्छे साथी बन गए। यहीं उन्होंने प्रकृति की सबसे सुंदर झलक देखी और यहीं उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं।

धीरे-धीरे उन्हें काजीरंगा और वहां के एक-सींग वाले गैंडे के बारे में जानने और समझने का मौका मिला। एक मित्र से मिले वीडियो कैमरे ने उनकी जिंदगी की दिशा ही बदल दी। उन्होंने काजीरंगा पर डॉक्यूमेंट्री बनाई। 1962 में यह फिल्म जर्मनी के बर्लिन टेलीविजन पर दिखाई गई और पूरी दुनिया की नजरें इस अद्भुत राष्ट्रीय उद्यान पर पड़ीं।

काजीरंगा शताब्दी समारोह को 'सदी की सबसे बड़ी संरक्षण सफलता की कहानी का जश्न' के रूप में मनाया गया था। 'काजीरंगा शताब्दी समारोह' के बारे में र्हिनो रिसोर्स सेंटर (गैंडा रिसोर्स सेंटर) के एक दस्तावेज में इसका जिक्र है कि बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली, वेरियर एल्विन, पदमश्री रॉबिन बनर्जी ने काजीरंगा में प्रवास को "एक आकर्षक अनुभव" पाया। रॉबिन बनर्जी, जिनकी फिल्म "काजीरंगा" 1961 में बर्लिन टीवी से प्रसारित हुई, ने काजीरंगा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाई।

रॉबिन बनर्जी की फिल्मों ने वन्यजीवों की सुंदरता और संवेदनशीलता को लोगों तक पहुंचाया। उनके प्रयासों से वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने एक-सींग वाले गैंडे की महत्ता को समझा और 1971-72 में काजीरंगा को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला।

उन्हें 1971 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया था। 1991 में असम कृषि विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट उपाधि और डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय से मानद पीएचडी की उपाधि से रॉबिन बनर्जी को सम्मानित किया। 6 अगस्त 2003 को रॉबिन बनर्जी का निधन हुआ।

--आईएएनएस

डीसीएच/केआर