जन्मदिन विशेष: गुलजार के हाथों में कमाल, शब्द ही नहीं गढ़े 'बोस्की' की हर छोटी बड़ी इच्छाओं का भी रखा मान

मुंबई, 17 अगस्त (आईएएनएस)। हिंदी सिनेमा और साहित्य की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं, जो समय के साथ फीके नहीं पड़ते, बल्कि और भी चमकते हैं। गुलजार उन्हीं में से एक हैं। उर्दू, पंजाबी, खड़ीबोली और हिंदी जैसी कई भाषाओं में उन्होंने जो कविताएं, गीत और कहानियां लिखी हैं, वो सीधे दिल में उतर जाती हैं। 18 अगस्त 1934 को झेलम (अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलजार, जिनका असली नाम संपूरण सिंह कालरा है, आज भी अपनी सादगी, संवेदनशीलता और शब्दों की गहराई से लोगों को बांध लेते हैं। लेकिन अगर गुलजार की जिंदगी को किसी एक नजरिए से सबसे गहराई से समझा जा सकता है, तो वो है उनकी बेटी मेघना गुलजार का!
एक सफल फिल्म निर्देशक के तौर पर पहचान बनाने वाली मेघना (जिनका प्यार का नाम बोस्की है) ने कई बार सार्वजनिक मंचों पर बताया है कि उनके पिता ने सिर्फ एक महान लेखक या गीतकार की भूमिका ही नहीं निभाई, बल्कि एक जिम्मेदार और संवेदनशील अभिभावक की तरह भी जीवन जिया।
गुलजार ने 1973 में अभिनेत्री राखी से शादी की थी। लेकिन जब उनकी बेटी बोस्की केवल एक साल की थीं, तब गुलजार और राखी अलग हो गए। अलग होने के बाद गुलजार ने मेघना की परवरिश में पूरी भूमिका निभाई।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में मेघना ने भावुक होकर कहा था कि उनके पापा ने कभी उन्हें डांटा नहीं, लेकिन अनुशासन हमेशा बनाए रखा। गुलजार खुद मेघना को स्कूल के लिए तैयार करते, उनकी चोटी बनाते, जूते पॉलिश करते और समय निकालकर दोपहर साढ़े तीन बजे स्कूल से लेने भी जाते। उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं छोड़ा जिससे मेघना को मां की कमी महसूस हो।
उन्होंने बताया था कि गुलजार ने हमेशा उन्हें आजादी से जीने की छूट दी, लेकिन पढ़ाई को लेकर कभी समझौता नहीं किया। उनका एक ही नियम था, 'पढ़ाई पूरी करो, उसके बाद जो मन करे वो करो।' शायद यही वजह है कि मेघना आज खुद एक सफल निर्देशक हैं, जिन्होंने 'राजी', 'छपाक' और 'सैम बहादुर' जैसी फिल्मों के जरिए अपना हुनर दिखाया।
गुलजार की शायरी, गीत और नज्मों में बंटवारे का दर्द, दिल्ली की गलियों की खुशबू, और गालिब की रचनाओं की छाया मिलती है। उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में कहा था कि वे खुद को 'कल्चरली मुसलमान' मानते हैं, क्योंकि उनकी सोच में हिंदी और उर्दू दोनों की मिलावट है। यह बात उनकी लेखनी में भी साफ झलकती है। उनकी शुरुआत बतौर गीतकार 1963 में बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' से हुई थी, जिसमें लिखा गया गाना 'मोरा गोरा रंग लइले' आज भी उतना ही मासूम और गहरा लगता है जितना शायद तब लगता होगा। इसके बाद उन्होंने एक से एक खूबसूरत गीत लिखे। फेहरिस्त बहुत लंबी है लेकिन 'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं', 'कजरारे कजरारे' और 'छैंया छैंया' ये ऐसे तीन गाने हैं जो गुलजार की कलम के अलग-अलग रंगों से रूबरू कराते हैं। उनकी लेखनी में दिल्ली की बल्लीमारान की गलियों से लेकर मुंबई की रेलगाड़ियों तक का सफर महसूस होता है।
गुलजार की केवल लेखनी ही नहीं, उनकी आवाज भी दमदार है। कई टेलीविजन विज्ञापनों और फिल्मों में उनके बोले डायलॉग किसी कविता की तरह लगते हैं। यही वजह है कि आज भी जब वह मंच पर कुछ बोलते हैं, तो लोग शांत होकर सिर्फ सुनते हैं और कह उठते हैं 'शिकवा नहीं...।'
--आईएएनएस
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