धुरंधर: सिनेमा में विचारों का नया मोड़
फिल्म ने दशकों की चुप्पी तोड़ी

फिल्म 'धुरंधर' साधारण मनोरंजन से परे है; यह सिनेमा, मीडिया और नैरेटिव इकोसिस्टम में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है, जो यह सवाल उठाती है कि भारत की कहानी किसके हाथ में रही है। भारतीय सिनेमा में कुछ फिल्में केवल दर्शकों का मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि वे समय के दस्तावेज बन जाती हैं। 'धुरंधर' भी ऐसी ही एक कृति है। यह फिल्म किसी एक घटना की कहानी नहीं कहती, बल्कि दशकों से बने उस वैचारिक ढांचे पर सवाल उठाती है, जिसके माध्यम से दर्शकों को यह बताया जाता रहा है कि उन्हें क्या देखना चाहिए, क्या समझना चाहिए और क्या भूल जाना चाहिए।
सिनेमा बनाम नैरेटिव
पिछले सात दशकों में, बॉलीवुड ने इतिहास, आतंक और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को अक्सर रोमांटिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। मुगलों के युग को प्रेम कहानियों और भव्य दरबारों तक सीमित किया गया, जबकि सीमा पार आतंकवाद को 'गलतफहमी', 'मानवीय भावनाओं' और 'भाईचारे' के चाशनी में लपेटा गया। यह नैरेटिव प्रोजेक्शन असहज सच्चाइयों को या तो सुंदर बना देता है या अदृश्य कर देता है। 'धुरंधर' इस परंपरा को तोड़ती है। यह फिल्म दर्शकों से सहमति नहीं मांगती, बल्कि साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
प्रदर्शन जो बयान बन जाते हैं
अक्षय खन्ना का अभिनय शोर नहीं मचाता, बल्कि गहराई से प्रभावित करता है। उनका ठंडा, विश्लेषणात्मक और संयमित प्रदर्शन दर्शकों की चेतना तक पहुंचता है। आर. माधवन का अभिनय भी इसी तरह की रणनीतिक प्रस्तुति है। रणवीर सिंह ने अपने स्थापित 'स्टार-सुरक्षित दायरे' से बाहर निकलकर यह साबित किया है कि अभिनेता का धर्म केवल लोकप्रियता नहीं, बल्कि सत्य के प्रति जोखिम उठाने का साहस भी है।
निर्देशक की दृष्टि: मनोरंजन नहीं, हस्तक्षेप
आदित्य धर यहाँ निर्देशक के रूप में कम और विचारक के रूप में अधिक नजर आते हैं। 'उरी' जैसी अनुशासित कथा संरचना, वृत्तचित्र जैसी तथ्यपरक ईमानदारी और एक नागरिक का आक्रोश—हर फ्रेम यह दर्शाता है कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस से अधिक बौद्धिक और सांस्कृतिक स्पेस में हस्तक्षेप करने आई है।
क्यों घबराया नैरेटिव इकोसिस्टम?
'धुरंधर' की असली चुनौती इसकी कहानी नहीं, बल्कि इसका नियंत्रण से बाहर होना है। यह फिल्म तयशुदा वैचारिक एकाधिकार को तोड़ती है, दर्शकों को स्वयं निष्कर्ष तक पहुंचने का अधिकार देती है और याद दिलाती है कि राष्ट्र केवल सीमाओं पर नहीं, कहानियों में भी सुरक्षित है। प्रतिक्रियाएं असहज हैं और सोशल मीडिया पर असंतुलन स्पष्ट दिखता है।
एक फिल्म, एक क्षण
'धुरंधर' पर सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह फिल्म याद दिलाती है कि भारत केवल युद्ध सीमाओं पर नहीं लड़ रहा, बल्कि दूसरा युद्ध अपने नैरेटिव स्पेस में भी जारी है। यदि सिनेमा समाज का दर्पण है, तो 'धुरंधर' वह शीशा है जिसमें पहली बार बिना फिल्टर के चेहरा दिखाई देता है। और शायद यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
