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भगवान कालभैरव जयंती 2025: काशी के कोतवाल की महिमा

भगवान कालभैरव की जयंती हर साल मार्गशीर्ष मास की अष्टमी को मनाई जाती है। इस दिन भक्त उनकी पूजा करते हैं और संकट से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। कालभैरव को काशी का कोतवाल माना जाता है, जो समय और मृत्यु पर नियंत्रण रखते हैं। जानें उनकी पौराणिक कथा और काशी की रक्षा का महत्व।
 

भगवान कालभैरव की कथा


Kaal Bhairav Jayanti 2025: आज भगवान कालभैरव की जयंती मनाई जा रही है। हर वर्ष मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भक्तिभाव से इस पर्व का आयोजन किया जाता है। इस दिन व्रत रखकर भगवान कालभैरव की पूजा की जाती है, जिससे भय, पाप और संकट से मुक्ति की प्रार्थना की जाती है। यह पर्व धार्मिक महत्व रखता है।


यह दिन भगवान शिव के रौद्र रूप की भी याद दिलाता है, क्योंकि कालभैरव शिव जी के रौद्र स्वरूप माने जाते हैं। उन्हें काशी के कोतवाल के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि काशी भगवान शिव की नगरी है। कहा जाता है कि यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। आइए जानते हैं कि भगवान कालभैरव को काशी की रक्षा का दायित्व क्यों सौंपा गया है।


पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के अनुसार…


स्कंद पुराण में भगवान शिव के रौद्र रूप कालभैरव की कथा विस्तार से वर्णित है। एक बार ब्रह्मा जी, श्रीहरि विष्णु और भगवान शिव के बीच यह विवाद हुआ कि इनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ है। अंततः ऋषि-मुनियों ने भगवान शिव को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया। इस पर ब्रह्मा जी को ईर्ष्या हुई और उन्होंने भगवान शिव का अपमान किया। इससे भगवान शिव क्रोधित हुए और रौद्र रूप धारण किया।


भगवान शिव के उस तेजस्वी रूप से कालभैरव प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी का पांचवां सिर काट दिया। इस कारण उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगा। कालभैरव इस पाप से मुक्ति पाने के लिए तीर्थों की यात्रा पर निकले, लेकिन सफल नहीं हुए। अंततः भगवान विष्णु ने उन्हें काशी जाने की सलाह दी।


काशी के कोतवाल का महत्व

क्यों कहे जाते हैं ‘काशी के कोतवाल’?


काशी पहुंचकर कालभैरव ने गंगा और मत्स्योदरी के संगम में स्नान किया। उनके हाथ से ब्रह्मा का कपाल गिर गया, जिससे वे ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हो गए। इसके बाद भगवान विश्वनाथ ने स्वयं काशी में प्रकट होकर कालभैरव को वरदान दिया कि काल भी तुमसे डरेगा। महादेव ने कालभैरव को काशी की रक्षा का दायित्व सौंपा। तभी से उन्हें ‘काशी का कोतवाल’ कहा जाने लगा।


मान्यता है कि कालभैरव की अनुमति के बिना कोई भी व्यक्ति काशी में प्रवेश नहीं कर सकता। भक्तों की यात्रा भी उनके दर्शन से ही आरंभ होती है।