संविधान की प्रस्तावना में बदलाव पर बहस: क्या धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जरूरी हैं?
संविधान की प्रस्तावना पर राष्ट्रीय बहस की आवश्यकता
आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने सुझाव दिया है कि 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में बनाए रखना चाहिए या नहीं, इस पर एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। विपक्ष ने इस आह्वान को 'राजनीतिक अवसरवाद' और संविधान की आत्मा पर जानबूझकर हमला बताया है। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या इंदिरा गांधी की सरकार को प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार था? क्या उस सरकार को आपातकाल लगाने का अधिकार था? जब लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया था, तो उस सदन ने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार किस आधार पर लिया था? इंदिरा गांधी की सरकार ने केवल आपातकाल लगाकर ही संविधान की आत्मा पर प्रहार नहीं किया, बल्कि उस समय लिए गए हर निर्णय से संविधान निर्माताओं का अपमान किया।
आपातकाल और प्रस्तावना में संशोधन पर बहस
आपातकाल और प्रस्तावना में किए गए संशोधन पर चल रही बहस में, वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा है कि इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल की परिस्थितियों को संविधान ने अनुमति नहीं दी थी। उन्होंने उन लोगों से सवाल किए हैं जो प्रस्तावना में किए गए संशोधन को सही ठहराते हैं।
वहीं, आरएसएस से जुड़े एक पत्रिका में कहा गया है कि दत्तात्रेय होसबाले का आह्वान संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों की समीक्षा करने के लिए है, ताकि आपातकाल के दौरान की नीतियों की विकृतियों से मुक्त होकर इसकी मूल भावना को बहाल किया जा सके।
उपराष्ट्रपति का बयान
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इस बहस में भाग लेते हुए कहा कि संविधान की प्रस्तावना 'परिवर्तनशील नहीं' है, लेकिन आपातकाल के दौरान इसे बदल दिया गया, जो संविधान निर्माताओं की बुद्धिमत्ता के साथ विश्वासघात का संकेत है। उन्होंने कहा कि 1976 में आपातकाल के दौरान जो शब्द जोड़े गए, वे 'नासूर' थे और इससे उथल-पुथल पैदा हो सकती है।
धनखड़ ने प्रस्तावना को एक 'बीज' बताया, जिस पर संविधान विकसित होता है। उन्होंने कहा कि भारत के अलावा किसी अन्य देश में संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं किया गया।
कांग्रेस की भूमिका पर सवाल
कांग्रेस शायद भूल गई है कि आपातकाल के दौरान जब सारा विपक्ष जेल में था, तब इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में जबरन दो शब्द जोड़ दिए थे। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि जब समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा लिखित संविधान की प्रस्तावना में नहीं थे, तो उन पर सवाल उठेंगे ही।
आरएसएस पर संविधान विरोधी होने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि उसकी सरकारों ने सबसे अधिक बार संविधान में संशोधन किए हैं। कांग्रेस को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि जब प्रस्तावना को 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया था, तो 1976 में इसे क्यों बदला गया?