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वंदे मातरम के 150 वर्ष: एकता और विविधता का प्रतीक

इस वर्ष 'वंदे मातरम' के 150 वर्ष पूरे होने का उत्सव मनाया जा रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होंगे। हालांकि, जम्मू-कश्मीर में कुछ धार्मिक संगठनों ने इस गीत के गाने का विरोध किया है, इसे 'गैर-इस्लामी' बताते हुए। यह विरोध न केवल धार्मिक बल्कि राजनीतिक मानसिकता का भी प्रतीक है। जानें इस गीत का ऐतिहासिक महत्व और इसके पीछे की विवादास्पद बातें।
 

वंदे मातरम का 150वां उत्सव

देशभर में राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 7 नवंबर को दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में आयोजित मुख्य समारोह में भाग लेंगे, जहां देश के 150 ऐतिहासिक स्थलों पर सामूहिक रूप से 'वंदे मातरम' गाया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय के अनुसार, इस अवसर पर एक स्मारक डाक टिकट, सिक्का, प्रदर्शनी और वृत्तचित्र भी जारी किए जाएंगे। भाजपा ने इसे 'भारत की आत्मा का उत्सव' करार दिया है, जबकि प्रधानमंत्री ने इसे 'मां भारती को नमन का पर्व' कहा है।


जम्मू-कश्मीर में विरोध

हालांकि, जम्मू-कश्मीर से एक चिंताजनक खबर आई है। मीरवाइज उमर फारूक के नेतृत्व में धार्मिक संगठनों के समूह मुत्तहिदा मजलिस-ए-उलेमा (एमएमयू) ने केंद्र शासित प्रदेश में स्कूलों में वंदे मातरम गाने के आदेश को 'गैर-इस्लामी' बताते हुए इसका विरोध किया है। एमएमयू का कहना है कि इस गीत में 'भक्ति के ऐसे अंश हैं जो इस्लाम की एकेश्वरवादी मान्यताओं के खिलाफ हैं'। उन्होंने यह भी कहा कि मुस्लिम छात्रों को इसे गाने के लिए मजबूर करना 'अन्यायपूर्ण' और 'धार्मिक स्वतंत्रता का हनन' है।


विरोध का राजनीतिक पहलू

यह विडंबना है कि जब प्रधानमंत्री दिल्ली में 'वंदे मातरम' का जयघोष करने वाले हैं, उसी समय कश्मीर में कुछ धार्मिक संगठन इस गीत से भयभीत दिखाई दे रहे हैं। यह भय श्रद्धा का नहीं, बल्कि संकीर्णता का उत्पाद है। यह विरोध धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि राजनीतिक मानसिकता का प्रतीक है, जो राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने से हिचकती है।


वंदे मातरम का ऐतिहासिक महत्व

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में 'वंदे मातरम' लिखा था, जो केवल एक कविता नहीं, बल्कि पराधीन भारत की आत्मा की पुकार थी। यह गीत स्वतंत्रता संग्राम के हर मोर्चे पर गाया गया। 'वंदे मातरम' कहते हुए असंख्य क्रांतिकारी फाँसी के फंदे पर झूल गए। इस गीत में कोई धर्म नहीं, केवल मातृभूमि के प्रति श्रद्धा है।


धार्मिक और राजनीतिक दृष्टिकोण

मुत्तहिदा मजलिस-ए-उलेमा का यह कहना कि वंदे मातरम इस्लामी मान्यताओं के विरुद्ध है, दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। पहला, क्या देशभक्ति अब धार्मिक फिल्टर से गुजरेगी? और दूसरा, क्या हर राष्ट्रीय प्रतीक को किसी विशेष धर्म के चश्मे से देखा जाएगा? यदि 'मातृभूमि की वंदना' भी किसी के लिए आस्था-विरोधी है, तो समस्या गीत में नहीं, मानसिकता में है।


संविधान और राष्ट्रीय प्रतीक

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह स्वतंत्रता राष्ट्रविरोध या राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान की स्वतंत्रता नहीं है। जब कोई संगठन कहता है कि वंदे मातरम गाना 'गैर-इस्लामी' है, तो वह यह कह रहा होता है कि मातृभूमि के प्रति समर्पण का कोई धार्मिक आधार नहीं होना चाहिए।


एकता का संदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने के समारोह का नेतृत्व करना एक प्रतीकात्मक संदेश है कि राष्ट्रगौरव किसी एक पार्टी का नहीं, बल्कि सबका है। कश्मीर के धार्मिक नेताओं को यह समझना चाहिए कि वंदे मातरम भारत की एकता का सूत्रधार है।


वंदे मातरम का महत्व

वंदे मातरम किसी एक धर्म का गीत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का स्वर है। इससे परहेज़ करने वाले स्वयं को देश से अलग-थलग कर रहे हैं। यह गीत 'जय' का प्रतीक है, 'विरोध' का नहीं। जो लोग इस पर आपत्ति करते हैं, वे दरअसल यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके भीतर अब भी राष्ट्र से दूरी का बीज जिंदा है।