रेजांग ला की वीरता: 1962 के युद्ध की अनकही कहानियाँ
भारत माता की सेवा का अवसर
कई लोग बिना संघर्ष के ही रिटायर हो जाते हैं, लेकिन कुछ विशेष व्यक्तियों को भारत माता अपनी सेवा का अवसर देती है। इस बार भारत माता ने हमें अपनी रक्षा के लिए चुना है। चीन यह सोचता है कि उसने 20 अक्टूबर को हमारी भूमि पर कब्जा कर लिया है, और अब वह चुशूल पर भी कब्जा कर लेगा। लेकिन उसे यह नहीं पता कि यहां कौन है। 13 कुमाऊं के बहादुरों को दुश्मन को सबक सिखाने का समय आ गया है। 11 नवंबर 1962 को, लेफ्टिनेंट कर्नल एचएस ढींगरा के ये प्रेरणादायक शब्द लद्दाख की बर्फीली वादियों में गूंजे। उस समय तक चीन के साथ युद्ध को 20 दिन से अधिक हो चुके थे। उनके संबोधन के बाद, भारतीय सेना के जवानों ने चीन के खिलाफ अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया। युद्ध की कहानियाँ, वीरता के किस्से और शहादत की गाथाएँ कई दशकों तक सुनाई जाती हैं। लेकिन जब हार होती है, तो उन कहानियों को दफन कर दिया जाता है। रेजांग ला की कहानी भी ऐसी ही है, जो 1962 के भारत-चीन युद्ध से जुड़ी है।
गड़ेरिया की खोज
फरवरी 1963 की बात है। चीन के साथ युद्ध समाप्त होने के तीन महीने बाद, एक गड़ेरिया अपनी भेड़ों को चराते हुए चुशूल से रेजांगला पहुंचा। उसने तबाह हुए बंकरों और गोलियों के खोलों को देखा। जब वह और करीब गया, तो उसे चारों ओर सैनिकों की लाशें मिलीं। नर्सिंग असिस्टेंट के हाथ में सिरिंच था, और किसी की राइफल का बट उसके हाथ में था। इन लाशों को देखकर यह स्पष्ट हुआ कि ये लोग कितनी बहादुरी से लड़े थे। गड़ेरिया ने अधिकारियों को इस बारे में सूचित किया। हालांकि, पहले भी कुछ जवानों ने रेजांगला में हुई घटनाओं के बारे में बताया था, लेकिन उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया। 124 सैनिकों ने 3000 चीनी सैनिकों का सामना किया। यह सुनने में असंभव लगता है।
18 नवंबर 1962 का दिन
सुबह का समय था, और बर्फीला धुंआ फैला हुआ था। सूरज 17,000 फीट की ऊंचाई तक नहीं पहुंचा था। लद्दाख में ठंडी हवाएं चल रही थीं। यहां सीमा पर भारतीय सैनिक तैनात थे। 13 कुमाऊं बटालियन की सी कंपनी चुषूल सेक्टर में थी। सुबह के धुंधलके में, चीन की तरफ से हलचल शुरू हुई। बटालियन के जवानों ने देखा कि उनकी ओर रोशनी के गोले आ रहे हैं। मेजर शैतान सिंह ने गोली चलाने का आदेश दिया। थोड़ी देर बाद पता चला कि ये गोले असल में लालटेन थे, जिन्हें चीन की सेना ने भारत की ओर भेजा था। भारतीय फौज के पास सीमित हथियार थे, और उन्हें रिजांगला की रक्षा करनी थी।
मेजर का नेतृत्व
18 नवंबर को जब लड़ाई शुरू हुई, मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को पहाड़ी की ढलान पर तैनात किया। उनकी स्थिति बेहतर थी, लेकिन चीनी सेना पूरी तैयारी के साथ आई थी। पहले दौर में भारतीय फौज ने चीनी सैनिकों को पीछे धकेल दिया। मेजर शैतान सिंह ने सीनियर अधिकारियों से मदद मांगी, लेकिन उन्हें बताया गया कि मदद नहीं आ सकती। उन्होंने अपने जवानों को कहा कि जो पीछे हटना चाहता है, वह जा सकता है, लेकिन वह खुद लड़ाई जारी रखेंगे। बटालियन ने अपने मेजर पर भरोसा दिखाया और पीछे हटने से मना कर दिया।
रेजांग ला की लड़ाई
उनकी पूरी रेजीमेंट ने पोस्ट पर डटे रहने का निर्णय लिया और चीनी सैनिकों को आगे बढ़ने से रोका। चीनी सैनिकों ने कई बार हमला किया, लेकिन भारतीय सैनिकों ने बहादुरी से उनका सामना किया। मेजर शैतान सिंह ने भी जख्मी होने के बाद अपने पैरों से लड़ाई जारी रखी। इस युद्ध में कुछ सैनिकों को बंदी बना लिया गया, जबकि कुछ वापस लौटे। लेकिन उनकी कहानियों को कोई नहीं मानता था, क्योंकि बर्फ जम जाने के कारण सब कुछ दफन हो गया था।