राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: समाज में स्थायी परिवर्तन का प्रेरक
संघ का ऐतिहासिक योगदान
भारतीय समाज का इतिहास एक जीवंत चित्रपट है, जो यह स्पष्ट करता है कि परिवर्तन की प्रक्रिया कभी भी एकरेखीय, आसान या तात्कालिक नहीं रही। यह हमेशा बहुआयामी, जटिल और सतत रही है—एक ऐसी यात्रा जहाँ सामाजिक चेतना की धारा राजनीतिक उथल-पुथल, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आर्थिक बदलावों से होकर गुजरती है। ऐसे में, कुछ ही संस्थाएँ ऐसी होती हैं जो समय की धूल को चीरकर समाज को स्थायी विचार, दिशा और आदर्श प्रदान कर पाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) निस्संदेह उन्हीं विरले संगठनों में से एक है, जिसने 1925 से अब तक न केवल एक सुदृढ़ संगठनात्मक ढाँचा खड़ा किया, बल्कि विचारों, सिद्धांतों और दैनिक संस्कारों के माध्यम से समाज के ताने-बाने में एक स्थायी चेतना और परिवर्तन का बीजारोपण किया है।
संघ की स्थापना और उद्देश्य
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में संघ की स्थापना एक ऐसे दौर में की, जब राष्ट्र राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत तो था, किंतु सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर वह विखंडन, हीनभावना, अज्ञानता और एक गहरी निराशा से जूझ रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्यधारा का फोकस सत्ता के हस्तांतरण पर केंद्रित था, लेकिन हेडगेवार ने एक गहरी और मौलिक समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया—एक राष्ट्र के रूप में हमारी आंतरिक शक्ति का क्षीण होना। इसलिए, संघ का उद्देश्य केवल सेवा-कार्यों या संगठन के विस्तार तक सीमित नहीं रहा। उसका मूल लक्ष्य था प्रत्येक व्यक्ति के भीतर नैतिकता, अनुशासन, राष्ट्रभक्ति, व्यक्तिगत जिम्मेदारी और समाज-सेवा की भावना का पुनर्संचार करना। सेवा, संस्कार, संगठन और स्वावलंबन—ये चार स्तंभ संघ के दर्शन और उसकी कार्यप्रणाली की आधारशिला बने।
सेवा कार्यों का महत्व
संघ के सामाजिक प्रभाव को समझने का सबसे स्पष्ट माध्यम इसके सेवा-कार्य हैं। आपदा और संकट की प्रत्येक घड़ी में संघ के स्वयंसेवकों ने समाज के साथ खड़े होकर यह सिद्ध किया कि सेवा केवल एक दायित्व नहीं, बल्कि समाज के प्रति गहरी संवेदना और समर्पण है। चाहे वह 2004 की सुनामी हो, 2013 की उत्तराखंड त्रासदी हो, या फिर कोविड-19 महामारी का काल हो—संघ और उससे जुड़े संगठन राहत, बचाव और पुनर्वास कार्यों में सबसे आगे दिखाई दिए। यह कार्य महज घटनाबद्ध नहीं है। रक्तदान शिविर, स्वास्थ्य जागरूकता अभियान, और ग्रामीण अंचलों में चलने वाले नियमित चिकित्सा शिविरों के माध्यम से प्रतिवर्ष लाखों लोग लाभान्वित होते हैं। यह सेवा-भावना संघ को एक राजनीतिक संगठन से ऊपर उठाकर एक सामाजिक सुरक्षा-तंत्र का रूप प्रदान करती है।
शिक्षा का योगदान
व्यक्ति निर्माण के संघ के मूल लक्ष्य को साकार करने में शिक्षा की भूमिका अहम है। संघ की शैक्षणिक शाखा विद्या भारती आज देशभर में 25,000 से अधिक विद्यालयों का संचालन कर रही है। ये शिक्षण संस्थान केवल पाठ्यक्रम आधारित ज्ञान तक सीमित नहीं हैं। इनका केंद्र बिंदु है—बच्चों के चरित्र, नैतिक मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारी का निर्माण। खासकर दूर-दराज के आदिवासी और सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार का यह कार्य सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक बड़ा योगदान है। नियमित शिक्षा शिविरों में अनुशासन, ईमानदारी, सहानुभूति और सहयोग जैसे मूल्यों पर बल दिया जाता है, जो एक बच्चे को सिर्फ एक योग्य पेशेवर नहीं, बल्कि एक बेहतर इंसान और जिम्मेदार नागरिक बनने की दिशा में तैयार करते हैं।
संघ की संगठनात्मक शक्ति
संघ की सबसे बड़ी ताकत उसका संगठनात्मक ढाँचा है। समय के साथ, संघ ने ग्राम स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक एक अत्यंत मजबूत और सक्रिय नेटवर्क तैयार किया है। दैनिक शाखाओं के माध्यम से यह नेटवर्क न केवल स्वयंसेवकों में अनुशासन और समर्पण का संचार करता है, बल्कि किसी भी आवश्यकता के समय तत्काल और प्रभावी ढंग से एकत्रित होकर कार्य करने की क्षमता भी प्रदान करता है। यही संगठनात्मक क्षमता समाज में सामूहिक प्रयासों और सहयोग की भावना को सशक्त बनाती है। यही कारण है कि आज संघ शिक्षा, सेवा, संस्कृति और समाज कल्याण के क्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में संस्थाओं का सफलतापूर्वक संचालन कर पा रहा है।
स्वावलंबन का महत्व
संघ का प्रमुख आधार स्वावलंबन है, जिसे केवल आर्थिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं समझा जा सकता। यह मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को भी समाहित करता है। ग्रामीण भारत में आयोजित प्रशिक्षण शिविर किसानों और युवाओं को आधुनिक कृषि तकनीक, स्वरोजगार और कौशल विकास के गुर सिखाते हैं। इससे समाज के कमजोर वर्गों को न केवल आर्थिक स्थिरता मिलती है, बल्कि समाज में सम्मानजनक और सक्रिय भूमिका निभाने का आत्मविश्वास भी प्राप्त होता है। स्वावलंबन का यह संदेश आज के राष्ट्रीय "आत्मनिर्भर भारत" अभियान से सीधे तौर पर जुड़ता हुआ प्रतीत होता है।
महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता
संघ ने हमेशा से सामाजिक समरसता और महिला सशक्तिकरण को राष्ट्र-निर्माण की आधारशिला माना है। विभिन्न शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल-विकास कार्यक्रमों के माध्यम से महिलाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने की दिशा में निरंतर कार्य किया गया है। इससे न केवल महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, बल्कि परिवार और समाज के भीतर समानता और सहयोग की भावना भी मजबूत हुई है। इसी प्रकार, ग्रामीण विकास पर जोर देकर संघ ने शहरी-ग्रामीण विभाजन को कम करने का प्रयास किया है।
संस्कृति और आधुनिकता का संतुलन
एक ओर जहाँ संघ भारतीय संस्कृति, भाषा, परंपराओं और लोककलाओं के संरक्षण के लिए लगातार प्रयासरत है, वहीं दूसरी ओर उसने आधुनिक तकनीक को सहर्ष अपनाया है। लोक नृत्य, संगीत, त्योहारों और भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम सांस्कृतिक पहचान को सुदृढ़ करते हैं। साथ ही, ऑनलाइन शिक्षा, वेबिनार और सोशल मीडिया जैसे डिजिटल माध्यमों के प्रयोग से संघ ने यह साबित किया है कि परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सार्थक संतुलन बनाया जा सकता है। इससे युवा पीढ़ी की भागीदारी बढ़ी है और समाज में जागरूकता का एक नया वातावरण सृजित हुआ है।
संघ की स्थायी प्रासंगिकता
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गाथा यह सिद्ध करती है कि विचारों की शुद्ध और स्थिर शक्ति ही समाज को एक स्थायी और सकारात्मक दिशा प्रदान कर सकती है। संघ के चार स्तंभ—सेवा, संस्कार, संगठन और स्वावलंबन—मिलकर एक ऐसा ढाँचा तैयार करते हैं जो समाज में नैतिकता, सहयोग, एकता और आत्मनिर्भरता का पोषण करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, ग्रामीण विकास और सांस्कृतिक संरक्षण जैसे क्षेत्रों में इसकी सक्रिय भूमिका इसे केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक जीवंत विचारधारा और समाज-निर्माण का एक प्रभावी माध्यम बनाती है।
संघ की विरासत
संघ का योगदान केवल अतीत के पन्नों तक सीमित नहीं है; यह वर्तमान समाज और आने वाले भविष्य दोनों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। यह हमें एक मौलिक सबक सिखाता है: आलोचना करने या समस्याओं की पहचान करने से आगे बढ़कर, जब संगठित विचार, निःस्वार्थ सेवा-भावना और दृढ़ नैतिकता का मार्ग अपनाया जाता है, तभी समाज में वास्तविक, स्थायी और सकारात्मक परिवर्तन की संभावना साकार होती है। यही संघ की सबसे बड़ी विरासत और उसकी सतत प्रासंगिकता का कारण है।
लेखक की जानकारी
(लेखक : डॉ. बलकार सिंह पूनियां, ग्रामीण विकास विभाग इग्नू, नई दिल्ली में पदस्थ हैं)