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भारत-चीन संबंधों में ताइवान का मुद्दा: एक संतुलनकारी दृष्टिकोण

भारत और चीन के बीच ताइवान का मुद्दा एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक चुनौती है। हाल ही में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा के दौरान, ताइवान के संबंध में भारत की स्थिति पर चर्चा हुई। भारत ने हमेशा संतुलनकारी कूटनीति अपनाई है, जिसमें वह ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र नहीं मानता, लेकिन चीन के दबाव में भी नहीं आता। इस लेख में जानें कि कैसे भारत अपनी विदेश नीति को संतुलित रखता है और चीन के दुष्प्रचार का सामना करता है।
 

चीन की 'एक चीन' नीति और भारत का दृष्टिकोण

चीन की विदेश नीति का मूल सिद्धांत 'एक चीन' है, जिसके अनुसार बीजिंग ताइवान को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है। चीन की अपेक्षा है कि सभी देश इस स्थिति को स्वीकार करें। यही कारण है कि जब भी कोई चीनी नेता भारत का दौरा करता है या वार्ता होती है, ताइवान का मुद्दा उठाया जाता है।


वांग यी की भारत यात्रा और एस. जयशंकर की प्रतिक्रिया

हाल ही में भारत यात्रा पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग यी की एस. जयशंकर से मुलाकात के बाद, चीनी समाचार एजेंसी ने दावा किया कि जयशंकर ने कहा कि भारत ताइवान को चीन का हिस्सा मानता है। यह जानकारी संदिग्ध है, क्योंकि भारत ने इस संबंध में कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है। भारत की विदेश नीति ताइवान के मामले में संतुलन पर आधारित है, जिसमें वह ताइवान को अलग देश के रूप में नहीं मानता, लेकिन इसे चीन का हिस्सा कहने से भी बचता है।


भारत-ताइवान संबंध और आर्थिक सहयोग

भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं, लेकिन दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग, प्रौद्योगिकी आदान-प्रदान और शैक्षिक संबंध सक्रिय हैं। भारत-ताइवान आर्थिक सहयोग के लिए कई संस्थाएँ काम कर रही हैं, जो यह दर्शाती हैं कि भारत 'एक चीन' नीति का समर्थन करने के बजाय संतुलनकारी कूटनीति अपनाता है।


चीन का दृष्टिकोण और भारत की प्रतिक्रिया

चीन ताइवान को अपना 'अविभाज्य हिस्सा' मानता है। 1949 में चीनी गृहयुद्ध के बाद, राष्ट्रवादी सरकार ताइवान चली गई थी, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी ने मुख्यभूमि पर नियंत्रण पाया। तब से ताइवान ने अपनी अलग प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखी है, लेकिन चीन का कहना है कि 'पुनर्एकीकरण' उसका लक्ष्य है।


भारत की स्वतंत्र विदेश नीति

भारत की विदेश नीति हमेशा स्वतंत्र और संतुलित रही है। वह न तो ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र मानता है, न ही चीन के दबाव में आकर इसे पूरी तरह चीन का हिस्सा कहता है। यह विषय भारत के लिए अमेरिका, जापान और अन्य लोकतांत्रिक साझेदारों के साथ सामरिक संबंधों से भी जुड़ा है।


चीन का सूचना युद्ध और भारत की चुनौतियाँ

वांग यी की यात्रा और उसके बाद चीन का दुष्प्रचार यह दर्शाता है कि चीन केवल संवाद से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि सूचना युद्ध भी चलाता है। भारत के लिए चुनौती यह है कि वह अपनी 'रणनीतिक अस्पष्टता' को बनाए रखते हुए, ताइवान के साथ सहयोग बढ़ाए और चीन के गलत प्रचार का समय पर खंडन करे।


भविष्य की संभावनाएँ

भारत और चीन के बीच वार्ता एक सकारात्मक संकेत है कि एशिया की दो बड़ी शक्तियाँ संवाद के रास्ते को बंद नहीं कर रही हैं। हालांकि, चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। आने वाले वर्षों में यह देखना होगा कि क्या ये संबंध 'रणनीतिक प्रतिस्पर्धा' से 'साझा विकास' की ओर बढ़ते हैं या नहीं।