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बिहार चुनाव में महागठबंधन की हार: तेजस्वी और राहुल की रणनीतियों में कमी

बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की हार ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया है। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की रणनीतियों में कमी के कारण कांग्रेस को केवल छह सीटें मिलीं। इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि परिवारवादी राजनीति अब प्रभावी नहीं रही। बिहार के नए मध्य वर्ग ने पुरानी परंपराओं को तोड़ते हुए बदलाव की इच्छा जताई है। जानें इस चुनाव के परिणामों का क्या अर्थ है और कैसे महिलाओं और युवाओं ने नई ताकत के रूप में उभरकर महागठबंधन को चुनौती दी।
 

बिहार में महागठबंधन की अप्रत्याशित हार

तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और मुकेश सहनी

बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और राजद सहित महागठबंधन के सभी दलों की स्थिति इतनी खराब होगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। 1989 से लालू यादव के नेतृत्व में जो युग चला आ रहा था, उसके अंत के संकेत इस चुनाव के परिणामों में स्पष्ट दिखाई दिए। यह भी स्पष्ट हुआ कि परिवारवादी राजनीति स्थायी नहीं होती। हालांकि, यदि अगली पीढ़ी में पार्टी की नीतियों को बदलने और वोट बैंक को बढ़ाने की क्षमता हो, तो बात अलग है। यह गुण करुणानिधि के बेटे स्तालिन और शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन में देखने को मिलता है। लेकिन तेजस्वी और तेज प्रताप यादव अपने पिता की तरह सक्रिय नहीं हैं और न ही पार्टी के वोट बैंक को बढ़ाने में रुचि रखते हैं। तेजस्वी तो चुनाव के दौरान गठबंधन के नेताओं के साथ तालमेल भी नहीं बना सके।


बिहार के नए मध्य वर्ग की भूमिका

बिहार के उभरते मध्य वर्ग ने पुरानी परंपरा तोड़ी

यह केवल तेजस्वी का मामला नहीं है, बल्कि राहुल गांधी में भी राजनीतिक परिपक्वता की कमी है। उनका अहंकार इतना बढ़ गया है कि चुनावी रैलियों में बोलते समय वे अपनी जुबान पर नियंत्रण नहीं रख पाए। आज का बिहार चार दशक पुराना बिहार नहीं है। लालू यादव के शासन में भले ही अपराध बढ़े हों और उद्योग धंधे चौपट हुए हों, लेकिन मध्य वर्ग का विस्तार हुआ है। बिहार से भागे मज़दूरों ने अन्य राज्यों में जाकर पैसा कमाया और अपने वतन भेजा। इसके अलावा, बिहार के मध्य वर्ग ने अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए दिल्ली भेजा, जिससे वे उच्च पदों पर पहुंचे। इस प्रकार, बिहार में एक नई सोच का वर्ग उभरा है, जो राजनीति में रुचि रखता है और बदलाव की इच्छा रखता है।


राजनीतिक प्रचार में व्यक्तिगत हमले

प्रचार में निजी हमले

तेजस्वी और राहुल दोनों ने इस बात को नहीं समझा। राहुल गांधी के लिए बिहार में कुछ भी दांव पर नहीं था, क्योंकि उनकी पार्टी वहां लगभग गायब हो चुकी है। 1989 के बाद से कांग्रेस केवल हाज़िरी लगाती रही है। पिछले डेढ़ दशकों से वह लालू यादव की RJD की पिछलग्गू रही है। चुनाव में गठबंधन धर्म निभाना आवश्यक था, लेकिन दोनों एक-दूसरे से लड़ते रहे। राहुल गांधी ने अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाया और तेजस्वी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर व्यक्तिगत हमले किए।


कांग्रेस की रणनीति में कमी

अल्पसंख्यक समुदाय को नहीं जोड़ सके राहुल

कांग्रेस के लिए 'वोट चोर गद्दी छोड़' जैसे नारे घातक साबित हुए। राहुल गांधी ने बिहार में सवर्ण जातियों को पूरी तरह नजरअंदाज किया, जो कि सामाजिक न्याय के मसीहा कहे जाने वाले लालू यादव ने भी नहीं किया था। दलित वोट चिराग़ पासवान ले गए, जबकि मुस्लिम वोट कांग्रेस की बजाय असदुद्दीन ओवैसी के खाते में गया। इस चुनाव में कांग्रेस को केवल छह सीटें मिलीं, जो उसकी सबसे बड़ी हार है।


तेजस्वी और राहुल की आपसी लड़ाई

राहुल और तेजस्वी एक-दूसरे को निपटाते रहे

कांग्रेस ने शुरू में तेजस्वी को मुख्यमंत्री का चेहरा बताने में संकोच किया। जब तेजस्वी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में स्वीकार किया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चुनाव प्रचार के दौरान दोनों के बीच तालमेल की कमी थी। वोटरों को यह महसूस हुआ कि दोनों के पास बिहार की जनता के लिए कोई मुद्दे नहीं हैं। तेजस्वी ने 136 सीटों में से 52 सीटों पर यादव उम्मीदवार उतारे, जिससे NDA को यह प्रचारित करने में मदद मिली कि तेजस्वी का राज यादव राज और जंगल राज है।


प्रशांत किशोर की रणनीति विफल

प्रशांत किशोर जोकर साबित हुए

कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उसे केवल छह सीटें मिलीं। महागठबंधन को केवल 35 सीटें मिलीं। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। इस चुनाव में प्रशांत किशोर ने किसी का भला नहीं किया और राहुल तथा तेजस्वी अपने अहंकार के कारण डूब गए।


बिहार चुनाव के नए मायने

एमवाई के नये मायने

बिहार चुनाव ने कई चीजों के मायने बदल दिए हैं। अब एम वाई (M-Y) का मतलब मुस्लिम यादव नहीं, बल्कि महिला और युवा हो गया है। ये दोनों नई ताकतें बिहार चुनाव की रीढ़ रहीं। महिलाओं ने नीतीश के सुशासन के चलते घर से बाहर निकलने की आज़ादी पाई। युवाओं ने रोज़गार की मांग की और जातिवाद को नकारते हुए NDA को समर्थन दिया।