बिहार चुनाव में कांग्रेस की हार: कारण और विश्लेषण
कांग्रेस की हार का गहरा असर
बिहार चुनाव के परिणाम कांग्रेस के लिए केवल एक हार नहीं थे, बल्कि यह एक गंभीर झटका था जिसने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को चिंतित कर दिया। शनिवार रात को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के निवास पर हुई बैठक में इस चिंता का स्पष्ट संकेत मिला। वहां का माहौल गंभीर था, जहां राहुल गांधी, केसी वेणुगोपाल, अजय माकन और अन्य प्रमुख नेता चुपचाप एक-दूसरे की बातें सुन रहे थे। सभी के मन में एक ही सवाल था कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस केवल छह सीटों पर सिमट गई।
बैठक में उठे सवाल: हार के कारण क्या थे?
बैठक काफी देर तक चली, जिसमें नेताओं ने सीटों, उम्मीदवारों, गठबंधन और अन्य गलतियों का गहन विश्लेषण किया। हर बार एक ही बात सामने आई कि परिणाम अपेक्षा से कहीं अधिक निराशाजनक रहे। खड़गे ने नेताओं से सीधा सवाल किया कि जब कांग्रेस ने 60 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए, तो केवल छह ही क्यों जीते। पिछले चुनाव में पार्टी को 19 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार वोट शेयर में भी गिरावट आई। यह केवल संगठन की कमजोरी नहीं थी, बल्कि कुछ और भी था जिसकी स्पष्टता अभी तक नहीं आई है।
कांग्रेस का आरोप: चुनाव में अनियमितताएं
बैठक के बाद केसी वेणुगोपाल ने कहा कि पार्टी चुनाव में हुई अनियमितताओं के सबूत इकट्ठा कर रही है, जिन्हें अगले दो हफ्तों में सार्वजनिक किया जाएगा। अजय माकन ने भी इसी चिंता को साझा किया और कहा कि कई बूथों से कार्यकर्ताओं ने लगातार शिकायतें भेजी हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि ये परिणाम सामान्य नहीं थे और गठबंधन के अन्य दलों ने भी इसी तरह की राय व्यक्त की है।
गठबंधन में खामियां
बिहार में महागठबंधन की स्थिति शुरू से ही जटिल रही। तेजस्वी यादव को चेहरा घोषित करने में देरी हुई, जिससे विवाद उत्पन्न हुए। कांग्रेस और आरजेडी के बीच खींचतान ने पहले से ही माहौल को खराब कर दिया था। टिकट वितरण अंतिम समय तक लटका रहा, जिससे उम्मीदवारों के लिए स्थिति स्पष्ट नहीं थी। इससे प्रचार कमजोर हुआ और मतदाता भ्रमित हो गए। गठबंधन की सबसे बड़ी गलती तब सामने आई जब नौ सीटों पर सहयोगी दल एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो गए। कई स्थानों पर वोट बंटने से भाजपा और जेडीयू को जीत मिली।
महागठबंधन की समस्याएं
- तेजस्वी को चेहरा बनाने में देरी और विवाद
- टिकट बंटवारे पर खींचतान
- अंतिम समय तक सीटों का स्पष्ट फैसला नहीं
- नौ सीटों पर सहयोगी एक-दूसरे के खिलाफ
- प्रचार की धार कमजोर
- जमीन पर संगठन का कमज़ोर होना