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बाल-साहित्य: बच्चों की रचनात्मकता और पहेलियों का महत्व

बाल-साहित्य लेखन बच्चों के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें रचनात्मकता और सोचने की क्षमता का विकास होता है। लेखन की चुनौतियों के साथ-साथ, पहेलियाँ बच्चों के ज्ञान और मनोरंजन का एक साधन हैं। यह लेख बाल-साहित्य की परंपरा, पहेलियों के महत्व और उनके शैक्षिक लाभों पर प्रकाश डालता है। जानें कैसे ये रचनाएँ बच्चों की सोच को विकसित करती हैं और उन्हें ज्ञानवर्धक अनुभव प्रदान करती हैं।
 

बाल-साहित्य लेखन की चुनौतियाँ


बाल-साहित्य को सुनना और पढ़ना आसान है, लेकिन इसे लिखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। बाल-साहित्य लेखन में दो प्रकार के लेखक होते हैं—एक वे जो बच्चों के लिए लिखते हैं और दूसरे वे जो अपने समान उम्र के बच्चों के लिए रचनाएँ करते हैं। जब बच्चे खुद बाल-साहित्य का निर्माण करते हैं, तो उनकी रचनात्मकता और मानसिकता उनके समकक्ष पाठकों के स्तर पर होती है। वहीं, जब वयस्क लेखक बाल-साहित्य लिखते हैं, तो उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे कि भाषा का सरल होना, रचना का बच्चों के लिए उपयोगी होना, और पाठक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझना। यह तभी संभव है जब लेखक खुद को बच्चों की मानसिकता में ढाल सके।


बाल-साहित्य का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

कई बार यह कहा जाता है कि पहले बाल-साहित्य लेखन पर ध्यान नहीं दिया जाता था। पशु-पक्षियों और वनस्पतियों की पहचान के लिए कुछ तुकबंदी रचनाएँ ही बाल-कथाएँ मानी जाती थीं। लेकिन यह धारणा गलत है। हमारे लोक-साहित्य में आदर्श व्यक्तियों, लोककथाओं और परंपराओं के माध्यम से शिक्षा और ज्ञान का संचार किया जाता था। पंचतंत्र की कहानियाँ भी लोककथाओं में पाई जाती हैं। लोकजीवन में बालकों के बौद्धिक विकास के लिए कई ज्ञानवर्धक लोककथाएँ सुनाई जाती थीं। इस बाल-साहित्य में गीत, कहानियाँ, मुहावरे, लोकोक्तियाँ और पहेलियाँ शामिल होती हैं।


पहेलियों का महत्व

भारत में वैदिक काल से पहेलियों का प्रचलन रहा है। संस्कृत में इन्हें 'ब्रह्मोदय' कहा जाता है। महाभारत में यक्ष द्वारा पाण्डवों से पूछे गए प्रश्न भी पहेलियों के रूप में थे। सरल शब्दों में, पहेलियाँ बुद्धिमत्ता का मापने का एक साधन हैं। ये न केवल बच्चों का मनोरंजन करती हैं, बल्कि समाज की रुचियों को भी उजागर करती हैं। इन पहेलियों में वर्षों का अनुभव और चिंतन समाहित होता है।


लोक-साहित्य में पहेलियों का संग्रह

लोक-साहित्य में पहेलियों का एक विशाल भंडार है, जो खेती, भोजन, प्रकृति और व्यवहार से संबंधित होती हैं। निमाड़ी में इन्हें 'ताड़नई वार्ता' और 'कव्हाड़ा' कहा जाता है। बच्चों में इन वार्ताओं का प्रचलन अधिक होता है। बच्चे अपनी जिज्ञासा के अनुसार इकट्ठा होकर पहेलियाँ पूछते हैं। कोई भी बड़ा या छोटा 'कव्हाड़ा' पूछ सकता है, लेकिन प्रश्नकर्ता को सही उत्तर पता होना चाहिए।


कुछ पहेलियाँ

यहाँ कुछ पहेलियाँ प्रस्तुत हैं:


1. एक छतरी हीरासी झड़ी, न सब का माथा पर उल्टी पड़ी।
उत्तर: तारे भरा आकाश


2. धरती की आरती नऽ चाँद सूरज दुई दीया, भाई की बईण पूजणऽ चली ए पाँय कहाँ दिया।
उत्तर: कड़कती बिजली


3. नीळई बेटी, झूलऽ बठी; ल रे सगा, थारी लटालूम बेटी।
उत्तर: कैरी (कच्चा आम)


4. दाड़ी वाला डोकरा, का ए हिसळला दाँत।
उत्तर: मक्का का भुट्टा


5. काळई कोठड़ी मं धवळो पानी ए, जेमऽ नाचऽ झमाझम राणी।
उत्तर: दही की मटकी, मथानी


6. नानी सी गड़ू! जखऽ देखी–देखी रड़ूँ।
उत्तर: प्याज


7. आरकस–बारकस नौ सौ खूंटा, गाय छे मारकणी, दूध छे मीठा।
उत्तर: शहद, मधुमक्खी का छत्ता


8. चार भाई चैरा स्या, फूल पड़ऽ एक रास्या।
उत्तर: गाय के थन


9. लाल-लाल बाई, हाथ लगाई ते हाय-हाय मचाई।
उत्तर: लाल मिर्च


10. उभ्यो तो उभ्या, नऽ बठ्या तो भी उभ्या।
उत्तर: जानवर के सींग


11. उभी तो उभी, नऽ बठी तो बठी।
उत्तर: परछाई


12. चर्र मर्र चाँय-वाँय, तीन माथा दस पाँय।
उत्तर: मोट, दो बैल और एक आदमी


13. काळा खेत मं दही का छाटा।
उत्तर: कपास


14. वाकी-तेकी पावळई, बजावणू वाळो कुण; सुन्दर चली सासर, मनावणू वाळो कुण।
उत्तर: नदी का प्रवाह


15. एक बाई ऐसी, ओखऽ मारो तो भी न खिसी।
उत्तर: दीवाल


पहेलियों का शैक्षिक महत्व

पहेलियाँ बच्चों के अध्ययन और चिंतन का एक माध्यम हैं। ये उन्हें अपने चारों ओर की वस्तुओं का अवलोकन करने और प्रतीकात्मक रूप से उनके गुप्त स्वरूप को समझने में मदद करती हैं। पहले विद्यालयों में पहेलियों की प्रतियोगिताएँ आयोजित होती थीं, जहाँ बच्चे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते थे।