फूलन देवी की जीवनी 'बैंडिट क्वीन' का पुनरावलोकन: एक सच्चाई की कहानी
फिल्म 'बैंडिट क्वीन' का प्रभाव
जब शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' 26 जनवरी 1994 को रिलीज हुई, तो यह तुरंत चर्चा का विषय बन गई। यह फिल्म अत्याचार, क्रूरता और प्रतिशोध का एक भयानक चित्रण है, जिसमें सीमा बिस्वास ने फूलन देवी के रूप में अद्वितीय प्रदर्शन किया। शुरुआत में, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था।
फूलन के किरदार के बाद सीमा ने जो भी किया, वह उसकी तुलना में कमतर ही रहा, हालांकि वह दीप मेहता की 'वाटर' और दिलीप मेहता की 'कुकिंग विद स्टेला' में भी उतनी ही अच्छी थीं।
बैंडिट क्वीन को फिर से देखना ऐसा है जैसे किसी पुराने रिश्तेदार से मिलना जो सच बताने में संकोच नहीं करता, भले ही वह आपको दुखी कर दे। फिल्म के रिलीज होने के बाद से कुछ भी नहीं बदला है। उच्च जातियों की क्रूरता, जो कमजोर वर्गों को भयानक हिंसा के कृत्यों में धकेलती है, आज भी हमारे देश में एक जलता हुआ मुद्दा है।
फूलन देवी की प्रतिक्रिया
मुझे याद है कि असली फूलन देवी को यह फिल्म पसंद नहीं आई थी। यह उसे उसके द्वारा सहन किए गए आघात और यौन शोषण की याद दिलाती थी। कपूर की फिल्म उतनी ही कच्ची और आहत करने वाली है जितनी इसे होना चाहिए था।
शेखर ने मुझसे कहा था, 'मेरे लिए, जो सबसे प्रभावशाली फिल्म मैंने बनाई, वह बैंडिट क्वीन थी।' यह उनके अनुसार एक उत्कृष्ट कृति है, जो 'मिस्टर इंडिया' या 'एलिजाबेथ' से कहीं बेहतर है। बैंडिट क्वीन अत्याचार, दमन और जाति राजनीति पर आधारित सिनेमा की जननी है।
फिल्म की कच्ची वास्तविकता
फूलन देवी का बार-बार बलात्कार, जो एक प्रांतीय राजनेता द्वारा किया गया, एक ग्राफिक और निरंतर दुःस्वप्न की तरह फिल्माया गया। बलात्कार के दृश्य कच्चे, ग्राफिक और भयानक थे। शेखर कपूर ने बलात्कार के कृत्य को सभी उत्तेजना से मुक्त कर दिया।
बैंडिट क्वीन न केवल सीमा के करियर के लिए एक मोड़ था, बल्कि इसने भारतीय सिनेमा में महिलाओं के पात्रों को देखने के तरीके को भी बदल दिया। फिल्म ने सीमा को डाकू या बलात्कार पीड़िता के रूप में टाइपकास्ट करने की धमकी दी।
सीमा बिस्वास का संघर्ष
सीमा ने कहा, 'मैं एक अभिनेता हूं। मैं केवल अभिनय करना चाहती थी। मैंने कभी करियर की रणनीति के बारे में नहीं सोचा।' बैंडिट क्वीन के बाद उन्हें कई डाकू की भूमिकाएँ ऑफर की गईं, जिन्हें उन्होंने ठुकरा दिया।
सीमा ने संजय भंसाली की 'खामोशी' को इसलिए स्वीकार किया क्योंकि यह बैंडिट क्वीन से पूरी तरह अलग थी। लेकिन दुर्भाग्यवश, दोनों फिल्मों ने उन्हें टाइपकास्ट कर दिया।
सीमा ने कहा, 'मैंने बैंडिट क्वीन और खामोशी के बाद लगभग दो साल तक फिल्मों से दूर रहने का फैसला किया।' उन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाएँ पाने में कठिनाई होती है।