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न्यायमूर्ति एनवी रमणा का खुलासा: राजनीतिक दबाव और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एनवी रमणा ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण बयान दिया है, जिसमें उन्होंने राजनीतिक दबाव और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने बताया कि कैसे आंध्र प्रदेश की सरकार ने उनके परिवार के खिलाफ झूठे मामले दर्ज कराए। इस बयान ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और राजनीतिक दबाव के बीच के संबंधों पर नई बहस को जन्म दिया है। रमणा ने अमरावती के किसानों के संघर्ष का भी उल्लेख किया, जो पिछले कई वर्षों से अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। उनका यह बयान केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं पर गहरे राजनीतिक दबाव का संकेत है।
 

न्यायमूर्ति रमणा का विवादास्पद बयान

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एनवी रमणा ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण खुलासा किया है, जिसने न्यायिक और राजनीतिक संबंधों पर नई बहस को जन्म दिया है। आंध्र प्रदेश के अमरावती में वीआईटी-एपी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए, उन्होंने बताया कि जब वह भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने वाले थे, तब वाईएस जगन मोहन रेड्डी की सरकार ने उनके परिवार के खिलाफ पुलिस मामले दर्ज कराए। उन्होंने कहा, "मेरे परिवार को निशाना बनाया गया और झूठे आपराधिक मामले बनाए गए। यह सब मुझे दबाव में लाने के लिए किया गया था।" यह बयान केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि भारत की संवैधानिक संस्थाओं पर राजनीतिक दबाव कितना गहरा है।


अमरावती के किसानों का संघर्ष

न्यायमूर्ति रमणा ने अपने संबोधन में अमरावती से अपने जुड़ाव का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि अमरावती के किसान पिछले पांच वर्षों से राज्य की तीन राजधानियों की नीति के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। 2019 से 2024 तक, ये किसान अपने अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन करते रहे और अंततः 2024 में एन. चंद्रबाबू नायडू की वापसी के साथ यह नीति वापस ले ली गई।


मीडिया और राजनीतिक प्रतिक्रिया

उन्होंने कहा, "दक्षिण भारत में शायद ही किसी आंदोलन ने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी हो जितनी अमरावती के किसानों ने। लेकिन दुर्भाग्य से, न तो मीडिया ने सच्चाई को उजागर किया और न ही राजनेताओं ने इन किसानों को उचित श्रेय दिया।" रमणा ने अपने कठिन दिनों को याद करते हुए कहा कि जब उनके परिवार पर पुलिस कार्रवाई हुई, तब वह अकेले नहीं थे। "जो भी किसान आंदोलन के पक्ष में बोले, उन्हें डराया गया। यहां तक कि न्यायाधीश भी, जिन्होंने संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा की, उन्हें स्थानांतरण और दबाव का सामना करना पड़ा।"


न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल

यह स्वीकारोक्ति भारतीय लोकतंत्र की न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर प्रश्न उठाती है। यदि एक न्यायाधीश, जो सर्वोच्च पद पर है, यह कहता है कि उसे राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा, तो यह केवल व्यक्तिगत मामला नहीं रह जाता। न्यायपालिका की स्वतंत्रता तभी सुनिश्चित होती है जब सत्ता का कोई अंग दूसरे पर अनुचित प्रभाव न डाल सके।


न्यायपालिका और कानून का शासन

न्यायमूर्ति रमणा ने कहा, "सरकारें बदल सकती हैं, लेकिन न्यायपालिका और कानून का शासन स्थायित्व के आधार हैं। यह तभी जीवित रह सकता है जब न्याय के संरक्षक अपनी सत्यनिष्ठा को गिरवी न रखें।" यह बयान न केवल वर्तमान राजनीतिक माहौल पर टिप्पणी है, बल्कि न्यायपालिका के भीतर बढ़ती संवेदनशीलता और भय के वातावरण की ओर भी इशारा करता है।


भविष्य की उम्मीद

उन्होंने कहा कि "इन कठिन समयों में कई राजनीतिक नेता मौन रहे हैं। केवल विधिवेत्ता, वकील और न्यायालय ही संवैधानिक वादे पर टिके रहे हैं।" उन्होंने आशा व्यक्त की कि भविष्य में किसान, वकील, न्यायविद, सिविल सोसाइटी और न्यायाधीश सभी कानून के शासन की रक्षा के लिए प्रेरित रहेंगे।


निष्कर्ष

न्यायमूर्ति रमणा का यह बयान केवल आत्मकथन नहीं, बल्कि सिस्टम को आईना दिखाने वाला है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि जब संविधान के रक्षक ही दबाव में हों, तो नागरिक अधिकारों की रक्षा कौन करेगा? भारत जैसे लोकतंत्र में न्यायपालिका की निष्पक्षता केवल संस्थागत संरचना का प्रश्न नहीं, बल्कि नैतिक साहस का भी है। यह प्रसंग केवल अमरावती या किसी राज्य की राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हर लोकतंत्र के हृदय में गूंजता है। न्यायमूर्ति रमणा की आवाज़ इस प्रश्न का उत्तर खोजने का आग्रह करती है— सत्ता से नहीं, समाज से।