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नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यमय मृत्यु: क्या सच में हुए थे वे जीवित?

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु का रहस्य आज भी एक विवाद बना हुआ है। क्या वे सच में एक विमान दुर्घटना में मारे गए या वे गुमनामी बाबा बनकर जीवित रहे? इस लेख में हम नेताजी की अंतिम यात्रा, विमान दुर्घटना और उनके जीवित होने के दावों पर चर्चा करेंगे। जानें कैसे यह रहस्य भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और क्यों लोग आज भी इस पर बहस कर रहे हैं।
 

नेताजी की मृत्यु का रहस्य

मौत एक अनिवार्य सत्य है, लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं जिनके पीछे रहस्य छिपा होता है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु का रहस्य भारतीय राजनीति में एक लंबे समय से चलने वाला विवाद है। दशकों से लोग जानना चाहते हैं कि आखिरकार सुभाष चंद्र बोस का क्या हुआ? क्या वे एक विमान दुर्घटना में मारे गए थे या उनका अंत रूस में हुआ? या फिर 1985 तक वे गुमनामी बाबा बनकर उत्तर प्रदेश में रहे? 16 अगस्त 1945 को द्वितीय विश्व युद्ध अपने अंतिम चरण में था। जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया था और जर्मनी में हिटलर ने आत्महत्या कर ली थी। दोनों देश युद्ध में बुरी तरह हार चुके थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जो 1943 से आजाद हिंद फौज का नेतृत्व कर रहे थे, अब नए तरीकों की तलाश में थे ताकि आजादी की लड़ाई जारी रखी जा सके। हालांकि, उनके योजनाएं लिखित रूप में स्पष्ट नहीं थीं, लेकिन उनके सहयोगियों को पता था कि नेताजी सोवियत संघ में अपना आधार स्थानांतरित करना चाहते थे। उनका इरादा था कि वे पहले टोक्यो जाकर जापानी सरकार का धन्यवाद करेंगे और फिर सोवियत संघ की ओर बढ़ेंगे। इसका कारण यह था कि सोवियत संघ अलाइड फोर्सेज का हिस्सा था, यानी उन देशों में से एक जिसने युद्ध जीता। लेकिन सोवियत संघ अमेरिका और ब्रिटेन से काफी अलग था।


नेताजी का टोक्यो दौरा

नेताजी को उम्मीद थी कि उनकी कम्युनिस्ट विचारधारा ब्रिटिशों के खिलाफ भारत की मदद करेगी। शाहनवाज कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, नेताजी ने इसी दौरान जापानी सरकार से तीसरी और अंतिम बार कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने के लिए टोक्यो का दौरा किया। लेकिन समस्या यह थी कि जापान युद्ध हार चुका था। हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए दो परमाणु हमलों ने तबाही मचाई थी। इसलिए जापानियों के पास नेताजी को टोक्यो ले जाने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं थे। फिर भी, उन्होंने एक रास्ता निकाला। सीएसडीआईसी के सामने दिए गए बयान में आनंद मोहन सहाय ने बताया कि 1944 के अंत या 1945 की शुरुआत में जब वे जापानी विदेश मंत्री शिगेमित्सु से मिले, तो उन्हें बताया गया कि नेताजी ने टोक्यो में रूसी राजनयिक से मिलने की इच्छा जताई थी, लेकिन जापानी सहयोग न होने के कारण ऐसा नहीं कर सके। बाद में नेताजी ने खुद सहाय को बताया कि उन्होंने जापानी सैन्य अधिकारियों से कहा था कि वे मन्चूरिया के रास्ते रूस पहुंचने का इंतजाम करें। जापानी सेना का मानना था कि नेताजी को ऐसी जगह जाना चाहिए जहां उन्हें अधिक स्वतंत्रता मिले। टोक्यो मुख्यालय ने दायरन के रास्ते रूस जाने की उनकी योजना को मंजूरी दी और जनरल शिदई से उनके साथ जाने को कहा।


विमान दुर्घटना

17 अगस्त की दोपहर, सुनसान साइगोन हवाईपट्टी पर दो विमान उतरे। पहले विमान में नेताजी, अय्यर, प्रीतम, रहमान और एक अन्य जापानी अधिकारी थे। इसके बाद हाचिया, इसोदा, कर्नल गुलज़ारा सिंह, देबनाथ दास और मेजर आबिद हसन आए। दोपहर में इसोदा और टाडा ने नेताजी से मुलाकात की। यहां पहुंचने पर उन्हें बताया गया कि इस भारी बमवर्षक विमान में केवल दो लोगों के बैठने की जगह है। नेताजी अपने आजाद हिंद फौज के साथियों के साथ इस यात्रा में नहीं जा सकते थे। उन्होंने हबीबुर रहमान के साथ अपनी यात्रा जारी रखी। 17 अगस्त को शाम पांच बजे यह विमान साइगोन से उड़ान भरता है और लगभग 12-13 लोग इसमें सवार थे। नेताजी और हबीबुर रहमान के अलावा बाकी सभी लोग जापानी सेना के थे। शाम 7 बजे विमान तूरेन में उतरा, जो आज दक्षिणी वियतनाम में दा नांग के नाम से जाना जाता है। सभी यात्री होटल में ठहरते हैं। अगली सुबह पांच बजे विमान उड़ान भरता है। इसके बाद भारत के इतिहास की सबसे विवादास्पद विमान दुर्घटना घटित होती है।


विमान दुर्घटना का विवरण

दोपहर 2:30 बजे, विमान ने उड़ान भरते समय अचानक एक भयानक आवाज सुनी। यह आवाज पहले कैप्टन नाकामुरा ने सुनी, जो मत्तसूयामा हवाई अड्डे पर मेंटेनेंस अधिकारी थे। उन्हें दूर से विमान से कुछ गिरता दिखाई दिया। यह विमान के पोर्ट इंजन का हिस्सा था। रहमान ने भी यह भयानक आवाज सुनी। पायलटों ने विमान को नियंत्रित करने की पूरी कोशिश की, लेकिन नाकाम जॉयस्टिक लगातार कांप रही थी। 3 सेकंड में विमान 300 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से 300 फीट नीचे गिर गया। नेताजी को सिर में गंभीर चोट आई थी, लेकिन वे खड़े हो गए और आग से दूर होकर आगे बढ़ने लगे ताकि पीछे वाले हिस्से से विमान के बाहर निकल सकें। लेकिन यह संभव नहीं था। दरवाजा आग के गोले जैसा दिख रहा था। नेताजी आग की लपटों में से कूदते हुए आगे बढ़े। जब विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ, तब नेताजी की खाकी पर पेट्रोल गिर गया था। जैसे ही वे आगे बढ़े, उनकी खाकी में आग लग गई। कुछ ही मिनटों में रहमान और नेताजी को एक लॉरी में रखकर नानमोन मिलिट्री अस्पताल ले जाया गया, लेकिन नेताजी को बचाया नहीं जा सका।


नई कहानियाँ और रहस्य

1960 के दशक में एक नई कहानी सामने आई, जिसमें दावा किया गया कि बोस को भारत के एक दूरदराज के कोने में एक संन्यासी के रूप में देखा गया। लगभग 15-20 वर्ष पहले, इस मुद्दे पर फिर से नई जान फूंक दी गई जब एक कोर्ट के निर्णय के कारण सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मुखर्जी की जांच ने स्थिति को पलट दिया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में सरकार को उनकी जांच में सहयोग न करने के लिए कड़ी फटकार लगाई और लिखा कि ताइवान में बोस की मृत्यु की कहानी अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने की एक जापानी चाल थी ताकि बोस के रूस जाने की बात छिपाई जा सके। जब गुमनामी बाबा के निधन के बाद उनकी नेताजी होने की बातें फैलने लगीं, तो नेताजी की भतीजी ललिता बोस भी कोलकाता से फैजाबाद आईं और इन सामानों को देखकर फफक पड़ीं, यह कहते हुए कि यह सब कुछ उनके चाचा का है। सरयू नदी के तट पर गुमनामी बाबा की समाधि है, जिस पर जन्म की तारीख 23 जनवरी लिखी है, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जन्म तिथि है, जबकि मृत्यु की तारीख के सामने तीन सवालिया निशान लगे हैं।


मौत का रहस्य आज भी कायम

मौत क्यों आज भी रहस्य?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने की बात को बल मिला कि ब्रिटिश और अमेरिकी खुफिया विभाग लगातार उनकी तलाश करते रहे। हरू की मृत्यु के बाद भी एक तस्वीर वायरल हुई थी जिसमें साधु के वेश में एक आदमी उनके दर्शन कर रहा था। उस आदमी के गोलाकार चश्मे के कारण कहा गया कि वह कोई और नहीं बल्कि सुभाष चंद्र बोस ही थे। नेताजी की तथाकथित मृत्यु के 7 दिन बाद एक अमेरिकी पत्रकार अल्फ्रेड ने दावा किया कि नेताजी जीवित हैं और उन्हें 4 दिन पहले साइगोन में देखा गया। नेताजी के जीवित होने की बात को महात्मा गांधी ने भी हवा दी थी। उन्होंने एक भाषण में कहा था कि कोई मुझे अस्थियां दिखा दे, तब भी मैं इस बात को नहीं मानूंगा कि सुभाष जीवित नहीं बचे। इवान सरकार ने अपने रिकॉर्ड देखकर खुलासा किया कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में कोई विमान हादसा हुआ ही नहीं था। आज बरसों बीत चुके हैं, लेकिन नेताजी की मृत्यु का रहस्य आज भी हमें सोचने पर मजबूर करता है। यह स्पष्ट है कि अफवाहों और निराधार चिंतन से कहीं अधिक इस मुद्दे में है, तभी तो हम इसे भूल नहीं पा रहे हैं।