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नक्सलवाद मुक्त भारत की दिशा में मोदी सरकार का लक्ष्य और विपक्ष का नया कदम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद मुक्त भारत का लक्ष्य रखा है, जबकि विपक्ष ने उपराष्ट्रपति पद के लिए पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया है। यह निर्णय कई सवाल उठाता है, जैसे कि क्या यह नक्सल विरोधी प्रतिबद्धता को कमजोर करता है? जानें इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा और वर्तमान स्थिति के बारे में।
 

नक्सलवाद के खिलाफ मोदी सरकार की रणनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, सरकार ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद से मुक्त भारत का लक्ष्य निर्धारित किया है। पिछले दस वर्षों में नक्सली हिंसा और माओवादियों के प्रभाव में उल्लेखनीय कमी आई है। सुरक्षा अभियानों के साथ-साथ विकास योजनाओं जैसे सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार ने नक्सलवाद की जड़ों को कमजोर किया है। इस महत्वपूर्ण समय में, विपक्षी गठबंधन इंडी (I.N.D.I.) ने उपराष्ट्रपति पद के लिए पूर्व सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को उम्मीदवार बनाया है। उनका नाम 2011 के उस निर्णय से जुड़ा है जिसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की सलवा जुडूम पहल को असंवैधानिक ठहराया था। उस समय, इस निर्णय को नक्सल विरोधी अभियान के लिए एक बड़ा झटका माना गया था.


विपक्ष के निर्णय पर उठते सवाल

विपक्ष के इस निर्णय से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। क्या यह कदम नक्सल विरोधी प्रतिबद्धता को कमजोर करने वाला संदेश देता है? क्या इससे अर्बन नक्सल नैरेटिव को अनजाने में वैधता मिलती है? और क्या यह संकेत है कि विपक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर अपेक्षित दृढ़ता नहीं दिखा रहा है?


अब बहस केवल इस पर नहीं रह गई कि कौन उपराष्ट्रपति बनेगा। असली प्रश्न यह है कि क्या संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों से राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति कमजोर रुख की अपेक्षा की जानी चाहिए? उपराष्ट्रपति चुनाव केवल एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक विमर्श का प्रतीक भी बन गया है जिसमें भारत को यह तय करना है कि उसकी सर्वोच्च संस्थाएँ सुरक्षा-केन्द्रित दृष्टिकोण को प्राथमिकता देंगी या नहीं.


विपक्ष के चयन का प्रतीकात्मक महत्व

यह सच है कि लोकतंत्र में हर राजनीतिक दल को अपने प्रत्याशी चुनने की स्वतंत्रता है, लेकिन जब देश निर्णायक मोड़ पर खड़ा हो, तब संवैधानिक पदों के लिए चुनी गई शख्सियतों का प्रतीकात्मक महत्व और भी बढ़ जाता है। इसलिए यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या विपक्ष के इस निर्णय से एक गलत संदेश नहीं जाएगा। क्या विपक्ष के चयनित उम्मीदवार से यह संदेश नहीं जायेगा कि जब सरकार जमीनी स्तर पर नक्सलवाद के खिलाफ अंतिम जंग लड़ रही है, तब विपक्ष ने ऐसे व्यक्ति को सामने रखकर उन ताकतों के प्रति अनजानी सहानुभूति प्रकट कर दी है, जिन्हें देश ने बार-बार अस्वीकार किया है.


सलवा जुडूम का संदर्भ

सलवा जुडूम छत्तीसगढ़ सरकार की वह पहल थी जिसमें आदिवासी युवाओं को सुरक्षा बलों के साथ खड़ा कर नक्सलियों से लड़ाई लड़ी जा रही थी। लेकिन इस पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाये गये थे और अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया था.


यह मामला सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर की याचिका से जुड़ा था, जिन्हें माओवादी समूहों से निकटता रखने के आरोपों का सामना करना पड़ा। बस्तर में एक हत्या के मामले में उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई थी, हालांकि बाद में उसे वापस ले लिया गया था। इस पृष्ठभूमि ने अदालत के निर्णय को और विवादास्पद बना दिया था.


वर्तमान स्थिति और भविष्य की दिशा

2011 में नक्सली हिंसा चरम पर थी। सलवा जुडूम पर रोक को कई हलकों ने भारत की नक्सल विरोधी लड़ाई के लिए झटका माना था। आलोचकों का कहना था कि यह कदम सुरक्षा बलों और राज्य सरकार की रणनीति को कमजोर करता था और माओवादियों को अप्रत्यक्ष समर्थन जैसा प्रतीत हुआ था.


आज की स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में, नक्सलवाद को जड़ से उखाड़ने की दिशा में देश तेजी से कदम बढ़ा रहा है। विकास योजनाओं को सुरक्षा अभियानों के साथ जोड़कर नक्सली नेटवर्क को लगातार तोड़ा जा रहा है। एक ओर मोदी सरकार है, जो नक्सलवाद को “जड़ से उखाड़ने” की नीति पर काम कर रही है, जबकि दूसरी ओर विपक्ष ने ऐसे व्यक्ति को चुना है जिनकी न्यायिक पृष्ठभूमि नक्सल विरोधी प्रयासों को कमजोर करने के रूप में देखी जाती रही है.


संविधानिक पदों का चयन और विचारधारा

इस पूरे प्रकरण का मूल निहितार्थ यही है कि भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पदों का चयन केवल व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह संकेत भी देता है कि देश किस विचारधारा और किस राष्ट्रीय संकल्प के साथ खड़ा है.