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दिल्ली विस्फोट: आतंकी खतरे और सुरक्षा बलों की चुनौतियाँ

दिल्ली में हालिया आतंकी हमले ने सुरक्षा बलों की चुनौतियों को फिर से उजागर किया है। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे आतंकी खतरे और आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे एक जटिल स्थिति पैदा कर रहे हैं। क्या सुरक्षा बलों को मानवीय आधार पर क्षमा किया जा सकता है? क्या राजनीतिक दलों की रणनीतियाँ इस समस्या को और बढ़ा रही हैं? जानें इस महत्वपूर्ण विषय पर विस्तृत जानकारी।
 

आतंकवाद और सुरक्षा की दुविधा


हर बार जब कोई आतंकी हमला होता है, तब एक बड़ा वर्ग सरकार और सुरक्षा बलों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है। हाल ही में दिल्ली में हुए विस्फोट ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न को जन्म दिया है: क्या देश में शत्रुबोध की आवश्यकता है? यह सच है कि कोई भी राष्ट्र अपने बाहरी दुश्मनों से लड़ सकता है, लेकिन अपने ही घर में छिपे दुश्मनों से लड़ना बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। इन्हें पहचानना भी कठिन है, खासकर जब हमारे देश में अल्पसंख्यकवाद का एक मजबूत आधार स्थापित हो चुका है। भारत चारों ओर से अपने घरेलू दुश्मनों के खतरे में है, जिन्हें सेक्युलरिज्म का सुरक्षा कवच मिला हुआ है। पिछले 11 वर्षों में जब यह कवच कमजोर हुआ, तो प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक था।


लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारी मातृभूमि की सुरक्षा कब तक सुरक्षा बलों के जिम्मे रहेगी? बाहरी और आंतरिक दुश्मनों को एक बार सफल होना होता है, जबकि सुरक्षा बलों को हर बार सफल होना पड़ता है। 99 सफलताएँ तब बेकार हो जाती हैं जब एक आतंकी हमला सफल हो जाता है। यह चुनौती अत्यधिक कठिन है। यदि दिल्ली जैसी घटनाएँ होती हैं, तो क्या सुरक्षा बलों को मानवीय आधार पर क्षमा नहीं किया जा सकता? आखिरकार, सुरक्षा में तैनात लोग भी इंसान हैं। उन्हें भी थकान हो सकती है। इसलिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी सुरक्षा एजेंसी 100 प्रतिशत सफल नहीं हो सकती। अमेरिका में 9/11 का हमला या इजरायल में 07 अक्टूबर की घटना, सभी ने दिखाया है कि चूक होना मानवीय स्वभाव है। भारत के लिए चुनौती और भी गंभीर है क्योंकि बाहरी दुश्मनों को आंतरिक सुरक्षा का समर्थन मिलता है।


पिछले 11 वर्षों में, देश के विभिन्न हिस्सों में गजवा-ए-हिन्द के मॉड्यूल, आईएसआईएस, अलकायदा, और अन्य इस्लामिक आतंकवादी समूहों का पता लगाया गया है। ये सभी भारत में फल-फूल रहे हैं। आरडीएक्स और अमोनिया जैसे खतरनाक पदार्थों की बरामदगी इस बात का प्रमाण है कि आतंकवाद का नेटवर्क कितना मजबूत है। यह चिंता का विषय है कि इन मॉड्यूल को संचालित करने वाले लोग डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, मौलवी, और अन्य पेशेवर हैं। पिछले 11 वर्षों में आतंकवादियों की सफलता कम रही है, लेकिन वे पूरी तरह से समाप्त नहीं हुए हैं। हमारी सरकारें और सुरक्षा बल इनका प्रभावी तरीके से मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं, जिसका मुख्य कारण भारत में इस्लामिक आतंकवाद का मजबूत आंतरिक इकोसिस्टम है।


पुलवामा और पहलगाम की घटनाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। हर बार यह आरोप लगाया जाता है कि सरकार ने हमले की योजना बनाई। पहलगाम के समय, पी चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेताओं ने ट्वीट किया था कि सरकार को पहले यह पता करना चाहिए कि आतंकी पाकिस्तानी थे या भारतीय। चिदंबरम ने कार्रवाई के नाम पर मुस्लिम युवाओं की मासूमियत का मुद्दा उठाकर उसी आंतरिक इकोसिस्टम को मजबूत किया, जो आतंकियों को मदद करता है। जब सुरक्षा बलों ने सलमान मूसा को मार गिराया, तब कांग्रेस के नेता चिदंबरम ने 'ऑपरेशन माहादेव' पर सवाल उठाए। यह सामान्य बात नहीं है। इसके निहितार्थ भारत के दुश्मनों को सशक्त करने के प्रयास को स्पष्ट करते हैं।


दिल्ली में डायरेक्ट एक्शन डे का सपना देखने वाले उमर खालिद और शरजील की जमानत के लिए एक बड़ा राजनीतिक वर्ग लंबे समय से प्रयासरत है। हमें उस मानसिकता को समझने की आवश्यकता है जो तुष्टिकरण की आड़ में भारत के खिलाफ खड़ी है।


वास्तव में, मुस्लिम वोट की चाहत में विपक्षी राजनीति ने एक खतरनाक स्थिति पैदा कर दी है। आज सरकार का हर अंग इस शत्रु वर्ग से प्रभावित है और निर्णय लेने में कमजोर महसूस कर रहा है। किसी भी आतंकी को भारत में सजा दिलाना अब लगभग असंभव हो गया है। मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के सभी आरोपी उच्च न्यायालय से बरी हो जाते हैं, जबकि जयपुर ब्लास्ट के आरोपी सजा की दहलीज तक पहुंचने में दो दशकों का समय लेते हैं। सीरिया में आईएसआईएस से ट्रेनिंग लेकर आया एक मुस्लिम युवा भारत में पकड़ा जाता है, लेकिन उच्च न्यायालय को उसके मानवाधिकार की चिंता होती है।


सच्चाई यह है कि धर्म के आधार पर भारत का विभाजन करने वाली मुस्लिम समुदाय आज भी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा वोट बैंक है। इस वोट बैंक से मौजूदा विपक्ष को संसदीय राजनीति में शक्ति मिलती है। यह स्थिति भारत के लिए अत्यंत कठिन है। अकेले मोदी सरकार इस स्थिति से नहीं निपट सकती। इसलिए शत्रुबोध को ईमानदारी से समझने का समय आ गया है। हमें यह समझना होगा कि गंगा-जमुनी संस्कृति एक छलावा है। जो इस भूमि को मातृभाव से नहीं देखते, वे इसके प्रति निष्ठा कैसे रख सकते हैं?