जयपुर में 500 करोड़ के सरकारी अस्पतालों का निजीकरण: स्वास्थ्य सेवाओं का सपना अधूरा
सरकारी अस्पतालों का निजीकरण
जयपुर: 500 करोड़ के सरकारी अस्पताल निजी हाथों में, जनता के सपने धूमिल
यदि सरकारों ने बड़े स्वास्थ्य प्रोजेक्ट्स को निजी हाथों में नहीं सौंपा होता, तो जयपुर स्वास्थ्य सेवाओं में काफी आगे होता। ऐतिहासिक अस्पताल जैसे एसएमएस, जेके लोन, और जनाना अस्पताल के पास आधुनिक सुविधाओं की संभावनाएं थीं, लेकिन बजट की कमी और निजीकरण ने इनकी रीढ़ तोड़ दी।
जयपुर: पिछले डेढ़ दशक में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिए लगभग 500 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। योजनाएं फाइलों में बनी रहीं, बजट स्वीकृत हुआ, इमारतें खड़ी हुईं, लेकिन जनता को सुविधाएं नहीं मिल पाईं। विडंबना यह है कि जनता के पैसे से बने ये संस्थान अब निजी अस्पतालों द्वारा संचालित हो रहे हैं या अधूरे पड़े हैं।
पिछले डेढ़ दशक में कांग्रेस और भाजपा की चार सरकारों ने इन प्रोजेक्ट्स के लिए वादे किए। किसी ने इमारतें बनवाईं, किसी ने फंड जारी किए, और किसी ने उद्घाटन किया, लेकिन जनता को सेवा नहीं मिली।
लाभ न मिलने के कारण
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, प्रशासनिक लापरवाही और योजनाओं का अधूरा क्रियान्वयन, ये तीन कारण हैं जिनकी वजह से राजधानी की जनता को आवश्यक स्वास्थ्य ढांचा नहीं मिल सका।
समाधान क्या है?
- अधूरे प्रोजेक्ट्स को तुरंत आम जनता के लिए चालू किया जाए।
- निजी अस्पतालों की शर्तें सार्वजनिक की जाएं और गरीब मरीजों को मुफ्त इलाज सुनिश्चित किया जाए।
- भविष्य में किसी भी स्वास्थ्य परियोजना का शिलान्यास तब हो, जब वित्त और संचालन की गारंटी तय हो।
आम आदमी को क्या मिला?
मानस आरोग्य सदन: निजी अस्पताल के रूप में चालू
ट्रॉमा सेंटर: निजी हाथों में
आरयूएचएस अस्पताल: अधूरा और ठप
मानसरोवर मानस आरोग्य सदन
2008 में, सरकार ने मानसरोवर में मानस आरोग्य सदन के रूप में एक आधुनिक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल का सपना दिखाया। यह अस्पताल मानसिक स्वास्थ्य और न्यूरो डिजीज के लिए 300 बेड की सुविधाएं देने के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ यह प्रोजेक्ट विफल हो गया। इमारतें बनीं, लेकिन मशीनें और डॉक्टर नहीं आए।
आखिरकार, इसे निजी हाथों में सौंप दिया गया। अब यहां एक प्रसिद्ध निजी अस्पताल संचालित हो रहा है, लेकिन सरकार का कहना है कि वह आमजन का इलाज नहीं कर रहा।
दिल्ली-मुंबई की तरह सशक्त होता जयपुर
यदि सरकारों ने बड़े प्रोजेक्ट्स को निजी हाथों में नहीं सौंपा होता, तो जयपुर स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी आगे होता। एसएमएस जैसे ऐतिहासिक अस्पतालों के पास विशाल भवन और आधुनिक सुविधाओं की संभावनाएं थीं, लेकिन निजीकरण ने इनकी रीढ़ तोड़ दी। यदि ये संसाधन सरकार के अधीन रहते, तो जयपुर में मेडिकल रिसर्च से लेकर सुपर स्पेशलिटी ट्रीटमेंट तक की सुविधाएं उपलब्ध होतीं।
निजीकरण की ओर धकेलता सिस्टम
जयपुर के सरकारी अस्पतालों में मरीजों की भीड़ और डॉक्टरों की कमी आम हो गई है। एसएमएस जैसे बड़े नाम अब सुविधाओं की कमी के प्रतीक बन गए हैं। मरीजों को घंटों लाइन में लगना पड़ता है और कभी-कभी बिना इलाज लौटना भी पड़ता है। यह स्थिति जनता को निजी अस्पतालों की ओर मोड़ रही है।
यदि बजट, भूमि और नीति सरकारी ढांचे को मजबूत करने में लगाई जाती, तो जयपुर की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरे उत्तर भारत के लिए एक मॉडल बन सकती थी। लेकिन निजीकरण की नीति ने गरीबों की पहुंच स्वास्थ्य सेवाओं से दूर कर दिया है।
जनता का भरोसा तोड़ते हैं ऐसे प्रोजेक्ट
ऐसे प्रोजेक्ट जनता के भरोसे को तोड़ते हैं। पब्लिक फंड से बने संस्थान यदि निजी हाथों में सौंपे जाते हैं, तो यह न केवल नीतिगत विफलता है, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही का उल्लंघन भी है। जयपुर की बढ़ती आबादी के लिए नए अस्पताल जनता के लिए खोले जाने चाहिए थे।
500 करोड़ खर्च होने के बाद भी जनता को राहत नहीं मिलना केवल लापरवाही नहीं, बल्कि संवेदनहीनता है। सवाल यह है कि कब सरकारें जनता के पैसों का सही उपयोग करना सीखेंगी?
-अनिल गोस्वामी, जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ
मानस के लिए सरकार ने माना…यहां नहीं मिल रहा शर्त अनुसार इलाज
हाल ही में, राज्य सरकार ने माना कि मानस आरोग्य सदन में सरकार के नियमानुसार इलाज नहीं हो रहा। सवाई मानसिंह मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने भी इस पर लिखा था। यहां अनियमितताओं के चलते निलंबन की कार्रवाई की गई थी। यह राज्य का पहला निजी सहभागिता में संचालित अस्पताल है।
सरकार से सवाल?
जनता के टैक्स से बने अस्पताल जनता को क्यों नहीं मिले?
क्यों चार सरकारें सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रहीं?
निजी अस्पतालों को सौंपने की मजबूरी क्या थी?
आरयूएचएस विश्वविद्यालय बनाम अस्पताल
राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज (आरयूएचएस) का गठन जनता के लिए एक बड़े रैफरल हॉस्पिटल के रूप में हुआ था। 500 से अधिक बेड का यह अस्पताल आमजन के लिए बेहतर इलाज का सपना था। लेकिन आज यह रिसर्च और प्रशासनिक ढांचे तक सीमित है।
मरीजों के लिए घोषित अस्पताल अधूरा है। न डॉक्टर उपलब्ध हैं और न मशीनें। मरीजों को यहां सिर्फ एक इमारत दिखाई देती है। विडंबना यह है कि इस अस्पताल को लेकर हर सरकार ने अपने-अपने घोषणा पत्र में वादे किए, लेकिन किसी ने इसे आम जनता के इलाज तक नहीं पहुंचाया।
सीकर रोड ट्रॉमा सेंटर: भवन सरकारी, इलाज निजी
जयपुर-सीकर रोड पर लगभग 100 करोड़ रुपये से बना ट्रॉमा सेंटर हाइवे दुर्घटनाओं में काम आने वाला था। इसे राजस्थान का अत्याधुनिक ट्रॉमा इंस्टीट्यूट बताकर जनता से वादे किए गए थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि इमारत खड़ी होने के बाद उपकरण और स्टॉफ की कमी से यह कभी पूरी तरह शुरू नहीं हो पाया। बाद में इसे भी निजी अस्पताल को सौंप दिया गया।
अब यहां निजी संस्था इलाज तो करती है, लेकिन फीस और शुल्क आमजन की जेब से बाहर हैं। नतीजा यह है कि गरीब मरीज जिन्हें यहां मुफ्त सुविधा मिलनी थी, वे सरकारी अस्पतालों की लंबी कतारों में खड़े हैं।
जयपुर का स्वास्थ्य ढांचा मजबूत करने के लिए हमारी सरकार ने रिम्स के तौर पर कदम बढ़ाया है। सरकार के नियमों के अनुसार इलाज नहीं करने वालों पर हमारी नजर है। मानस को लेकर सरकार ने रिपोर्ट भी तैयार की है। कानूनी पहलुओं को देखकर आगे के कदम उठाएंगे।
-गजेन्द्र सिंह खींवसर, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री
तीन बड़े प्रोजेक्ट, तीनों जनता से दूर…
मानस आरोग्य सदन, मानसरोवर- खर्च: 300 करोड़, स्थिति: निजी अस्पताल चला रहा
ट्रॉमा सेंटर, सीकर रोड- खर्च: 200 करोड़, स्थिति: निजी हाथों में
आरयूएचएस अस्पताल- खर्च: 500 करोड़, स्थिति: अधूरा, रिसर्च कैंपस
आमजन की पीड़ा…
मेरे पिता का एक्सीडेंट हुआ, सोचा ट्रॉमा सेंटर नजदीक है, लेकिन वहां पहुंचकर पता चला कि यहां निजी अस्पताल चलाता है और इलाज का खर्च लाखों में है। आखिरकार हमें एसएमएस अस्पताल जाना पड़ा। अगर सरकार इसे सही से चलाती तो गरीबों की जान बचती।
-कैलाश मीणा, रामगढ़ मोड़
पास में इतना बड़ा अस्पताल बना है, लेकिन आम मरीज का इलाज वहां होना मुश्किल है। सरकारी कहकर बना और निजी अस्पताल चला रहे हैं। अस्पताल में आरजीएचएस मरीजों के साथ भेदभाव किया जा रहा है।
-विनोद, मानसरोवर