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जम्मू-कश्मीर में शहीद दिवस पर राजनीति और प्रशासनिक पहल का टकराव

जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई को शहीद दिवस पर उमर अब्दुल्ला और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के बीच राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण में स्पष्ट अंतर देखने को मिला। जहां उमर अब्दुल्ला ने अतीत की घटनाओं पर राजनीति की, वहीं मनोज सिन्हा ने पीड़ित परिवारों के लिए नौकरी देने का निर्णय लिया। यह स्थिति दर्शाती है कि कश्मीर के लोग अब रोजगार और शिक्षा की बात करना चाहते हैं, न कि पुरानी राजनीति में उलझना। जानें इस मुद्दे पर और क्या कहा गया।
 

शहीद दिवस पर उमर अब्दुल्ला का प्रदर्शन

जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई 1931 को मारे गए 22 व्यक्तियों को शहीद मानते हुए उन्हें श्रद्धांजलि देने का राजनीतिक खेल इस वर्ष भी देखा गया। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और नेशनल कांफ्रेंस के अन्य नेता, जो अलगाववादी विचारधारा के समर्थक हैं, 13 जुलाई को कब्रिस्तान नहीं पहुँच सके। लेकिन 14 जुलाई को, प्रशासन की रोक के बावजूद, उमर अब्दुल्ला वहां पहुंचे। रिपोर्टों के अनुसार, इस दौरान उनकी पुलिस के साथ बहस हुई, जिसे उन्होंने ‘लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला’ करार दिया।


उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक रणनीति

उमर अब्दुल्ला का यह कदम एक पूर्व निर्धारित राजनीतिक योजना का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसका उद्देश्य उन्हें और उनकी पार्टी को कश्मीर की वास्तविक आवाज के रूप में प्रस्तुत करना है। लेकिन यह विडंबना है कि 1931 की घटना पर जो राजनीति होती है, उसका आज के जम्मू-कश्मीर के मुद्दों से कोई संबंध नहीं है। यह सवाल उठता है कि क्या इन नेताओं ने कभी उन परिवारों की चिंता की है, जिन्होंने आतंकवाद के कारण अपने प्रियजनों को खोया है? इस संदर्भ में, उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का दृष्टिकोण अलग है। जबकि उमर अब्दुल्ला अतीत की घटनाओं पर राजनीति कर रहे हैं, मनोज सिन्हा प्रशासनिक स्तर पर उन पीड़ितों की मदद कर रहे हैं जिनकी पीड़ा आज भी ताजा है।


मनोज सिन्हा का प्रशासनिक दृष्टिकोण

उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने आतंकवाद की घटनाओं में मारे गए 40 निर्दोषों के परिजनों को नौकरी देने का निर्णय लिया, जो एक भावुक क्षण था। यह नियुक्ति पत्रों का वितरण केवल एक सरकारी प्रक्रिया नहीं, बल्कि उस विश्वास की पुनर्स्थापना थी जो वर्षों से टूट चुकी थी। मनोज सिन्हा के नेतृत्व में प्रशासन यह स्पष्ट कर रहा है कि जम्मू-कश्मीर अब केवल राजनीति का मैदान नहीं रहेगा, बल्कि यहां पीड़ितों के दर्द को समझा जाएगा और उनके जीवन को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे।


उमर अब्दुल्ला की आलोचना

उमर अब्दुल्ला ने ‘हम गुलाम नहीं’ जैसे बयानों के माध्यम से खुद को जनता का असली प्रतिनिधि दिखाने की कोशिश की है, लेकिन कश्मीर के लोग अब रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा की बात करना चाहते हैं। असली सवाल यह है कि कौन युवा पीढ़ी के लिए अवसर पैदा कर रहा है, जिसने हिंसा के साये में अपना बचपन बिताया है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का प्रशासन इस दिशा में ठोस कदम उठा रहा है। उन्होंने आतंकवाद के पीड़ित परिवारों को नियुक्ति पत्र सौंपकर अपने वादे को पूरा किया।


स्थानीय मीडिया पर उमर अब्दुल्ला की टिप्पणी

उमर अब्दुल्ला ने शहीदों के कब्रिस्तान में प्रवेश से रोकने पर उपराज्यपाल और पुलिस की आलोचना की। उन्होंने स्थानीय मीडिया पर भी हमला किया, यह कहते हुए कि कवरेज से यह स्पष्ट हो गया है कि कौन डरपोक है और किसमें साहस है। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा कि स्थानीय समाचार पत्रों ने निर्वाचित सरकार और जनप्रतिनिधियों को नजरबंद करने की सच्चाई को नजरअंदाज किया।