कुल्लू दशहरा: एक अद्वितीय उत्सव की कहानी
कुल्लू दशहरा का इतिहास
कुल्लू दशहरा 2025
कुल्लू दशहरा का आयोजन 2 अक्टूबर से शुरू होकर 8 अक्टूबर तक चलता है। यह उत्सव, जिसे अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा भी कहा जाता है, 7 दिनों तक मनाया जाता है। इस मेले में न तो रामलीला का प्रदर्शन होता है और न ही रावण का दहन किया जाता है। फिर भी, यह उत्सव देश-विदेश से लोगों को आकर्षित करता है, जो अपने देवी-देवताओं के साथ यहां आते हैं और अपने ईष्ट देवों का दर्शन करते हैं।
कुल्लू दशहरा की विशेषताएँ
कुल्लू दशहरा क्यों है खास?
कुल्लू दशहरा भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा से आरंभ होता है और स्थानीय देवी-देवताओं के मिलन के साथ समाप्त होता है। यह उत्सव विजयादशमी के बाद शुरू होता है और पूरे सात दिनों तक चलता है। इस दौरान भगवान रघुनाथ का रथ निकाला जाता है, जो स्थानीय देवी-देवताओं के मिलन का प्रतीक है।
रावण दहन का अभाव
रावण दहन नहीं होता
हर साल हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में मनाए जाने वाले इस अंतरराष्ट्रीय उत्सव में रावण दहन और रामलीला का आयोजन नहीं होता। यह एक सांस्कृतिक और रंगारंग आयोजन है, जो देवी-देवताओं के मिलन का जश्न मनाता है और लाखों लोगों को आकर्षित करता है।
कुल्लू दशहरे की उत्पत्ति
कुल्लू दशहरे की शुरुआत कब हुई?
कुल्लू दशहरे की शुरुआत 17वीं शताब्दी में राजा जगत सिंह द्वारा भगवान रघुनाथ के आशीर्वाद के लिए की गई थी। तब से यह त्योहार कुल्लू के राज्य देवता भगवान रघुनाथ को मुख्य देवता मानकर मनाया जाता है। इस दौरान आसपास के सभी देवी-देवता भी ढालपुर मैदान में इकट्ठा होते हैं, जिसे देवता मिलन के रूप में मनाया जाता है।
कुल्लू दशहरे की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ऐसे हुई कुल्लू दशहरे की शुरुआत
कहा जाता है कि कुल्लू दशहरे की शुरुआत राजा जगत सिंह के शासनकाल में हुई, जब उन्होंने एक ब्राह्मण की मृत्यु के बाद ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति पाने के लिए अयोध्या से भगवान रघुनाथ की मूर्ति लाकर कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित की। इस घटना के बाद राजा ने अपनी संपत्ति भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दी और 1660 में इस उत्सव की परंपरा की शुरुआत की, जो आज भी जारी है।