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कांतारा: पर्यावरण संरक्षण की कहानी और फिल्म का प्रभाव

कांतारा फिल्म ने पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत किया है। इस फिल्म में जंगलों, पेड़ों और प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को दर्शाया गया है। ऋषभ शेट्टी के अभिनय के साथ-साथ कहानी का प्लॉट भी इस फिल्म को खास बनाता है। कांतारा में स्थानीय नागरिकों और विकास अधिकारियों के बीच संघर्ष को भी दिखाया गया है, जो आज के समय में एक महत्वपूर्ण विषय है। जानें कैसे यह फिल्म समाज में जागरूकता फैला रही है और पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रेरित कर रही है।
 

पर्यावरण की प्राथमिकता

जीवन में प्राथमिकताओं को देखते हुए पर्यावरण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'अर्थ फर्स्ट' का नारा यूं ही नहीं है। जब जंगल, पेड़ और पहाड़ सुरक्षित रहेंगे, तभी हवा, पानी और ऊर्जा के स्रोत भी सुरक्षित रहेंगे। यही चिंता अरावली विवाद का केंद्र है, जिसे कई फिल्मों में प्रमुखता से दर्शाया गया है। ऋषभ शेट्टी की चर्चित फिल्म कांतारा ने भी इस मुद्दे को अपनी कहानी का आधार बनाया, जिसका दूसरा भाग कांतारा चैप्टर वन नाम से आया और बॉक्स ऑफिस पर फिर से सफल रहा। कांतारा चैप्टर वन 2025 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक है। धुरंधर से पहले यह फिल्म लंबे समय तक नंबर वन पर रही। कांतारा की सफलता का श्रेय ऋषभ शेट्टी के बेहतरीन अभिनय के साथ-साथ कहानी के प्रभावशाली प्लॉट को भी जाता है, जिसमें प्रकृति और पर्यावरण की महत्वपूर्णता को उजागर किया गया है.


जंगल का अद्भुत चित्रण

कांतारा के दोनों भागों में दर्शकों ने पहली बार जंगल को इतनी वास्तविकता और भव्यता के साथ देखा। जंगल के अंदरूनी हिस्से का चित्रण इसकी गरिमा को दर्शाता है। कांतारा में जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं है, बल्कि यह पेड़ों की महिमा का भी बखान करता है। ऋषभ शेट्टी ने प्रकृति में केवल सुंदरता नहीं देखी, बल्कि इसमें दिव्यता का भी अनुभव किया। फिल्म में कहा गया है कि पेड़ पर देवता निवास करते हैं। यहां हर पेड़ एक किरदार की तरह है, जिसका रक्षक दैव है.


प्रकृति का सम्मान

कांतारा को पश्चिम कर्नाटक के घने और रहस्यमय जंगल में फिल्माया गया है। लोककथाओं के अनुसार, यहां के जंगल में देवता निवास करते हैं और यह एक लंबी विरासत का हिस्सा है। कहा जाता है कि देवता यहां के जंगल की रक्षा करते हैं। देवता के प्रभाव के कारण ही यहां 'देवरा काडू' यानी पवित्र उपवन सुरक्षित रहता है। प्रकृति का सम्मान करना देवता की पूजा के समान है। हालांकि, मानव सभ्यता के विकास और जरूरतों के बढ़ने से विकास अधिकारियों, पर्यावरणवादियों और स्थानीय निवासियों के बीच तनाव उत्पन्न होता है, जो कांतारा में भी दर्शाया गया है.


स्थानीय संघर्ष

कांतारा में स्थानीय नागरिकों और विकास अधिकारियों के बीच संघर्ष को बड़े पैमाने पर दिखाया गया है। स्थानीय लोग आरोप लगाते हैं कि बाहरी लोग यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर नजर गड़ाए हुए हैं, जबकि विकास अधिकारी जंगल को संरक्षित क्षेत्र बनाकर उन्हें वहां से बेदखल करना चाहते हैं। स्थानीय निवासियों का कहना है कि वे और उनके पूर्वज सैकड़ों वर्षों से यहां रहते आए हैं, और पेड़ उनके लिए पूजनीय हैं। लेकिन अब प्रशासन यहां के कीमती खनिजों को निकालने की कोशिश कर रहा है, जो अरावली विवाद के मूल में भी एक समान आरोप है.


पर्यावरण संरक्षण की वैश्विक मुहिम

कांतारा जैसी चिंताएं केवल इस फिल्म तक सीमित नहीं हैं। भारत सहित विश्वभर में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कई फिल्में बनी हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हैं। जेम्स कैमरून की अवतार श्रृंखला में भी प्रकृति बनाम कॉर्पोरेट और तकनीक का संघर्ष दिखाया गया है। इसी तरह, रोलांड एमेरिच की 'डे आफ्टर टुमोरो' में जलवायु संकट की गंभीरता को दर्शाया गया है। 'अर्थ फर्स्ट' सिद्धांत पर आधारित इस फिल्म में चेतावनी दी गई है कि यदि हम जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लेते, तो धरती पर भयानक तबाही आ सकती है.


अन्य महत्वपूर्ण फिल्में

भारत में बनी अन्य फिल्मों में 2017 में आई नील माधव पांडा की 'कड़वी हवा' को नहीं भुलाया जा सकता। इस फिल्म में बुंदेलखंड के भौगोलिक परिदृश्य और ओडिशा के तटीय क्षेत्र में आने वाले साइक्लोन जैसी तबाही पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस फिल्म में गुलजार की एक भावुक कविता भी शामिल थी, जिसमें मौसम और पर्यावरण की चिंता व्यक्त की गई थी.


पेड़ों की कटाई का प्रभाव

कड़वी हवा में बताया गया है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से देश के विभिन्न हिस्सों के मौसम प्रभावित हो रहे हैं। कहीं सूखा है, तो कहीं बाढ़, कहीं धूल भरी आंधी है, तो कहीं औद्योगिक धुएं का प्रदूषण। इसके दुष्प्रभाव से कुछ लोग भूख से मर रहे हैं, जबकि कुछ कर्ज के बोझ तले दबे हैं। खराब मौसम से जनजीवन खतरे में है। यह समस्या केवल मैदानी इलाकों तक सीमित नहीं है, बल्कि समुद्री तटों पर भी तूफान और तेज बारिश का कहर बरपाता है.


संरक्षण की आवश्यकता

इसके अलावा, कच्छ में पानी के संकट पर केंद्रित 'जल', वन्यजीव संरक्षण पर आधारित विद्या बालन की 'शेरनी', और 'द एलिफेंट व्हिस्परर्स' जैसी फिल्में भी विचारणीय हैं। 2018 में सुशांत सिंह राजपूत और सोहा अली खान की 'केदारनाथ' में पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक आपदा को दर्शाया गया था। ये सभी फिल्में जंगल, पेड़, पहाड़, हवा, पानी और ऊर्जा के संरक्षण के माध्यम से मानवता के कल्याण की वकालत करती हैं. विकास मानव की सुविधाओं के लिए होते हैं, लेकिन प्रकृति के विनाश से मानवता को भी नुकसान होता है. ऐसे में संतुलन बनाना आवश्यक है.