आयुष को वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली में शामिल करने की दिशा में भारत की पहल
आयुष का वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली में स्थान
आयुष को वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली में स्थान दिलाने की तैयारी
योग, आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा अब केवल भारत की पहचान नहीं रह गई हैं, बल्कि ये वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनने की ओर अग्रसर हैं। भारत सरकार पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए एक रणनीतिक योजना पर काम कर रही है, जिसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का महत्वपूर्ण योगदान है। गुजरात के जामनगर में स्थापित WHO ग्लोबल ट्रेडिशनल मेडिसिन सेंटर इस दिशा में भारत की एक प्रमुख कूटनीतिक और वैज्ञानिक पहल मानी जा रही है।
यह केंद्र केवल एक अनुसंधान संस्थान नहीं है, बल्कि यह दुनिया भर की पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों के लिए मानक और वैज्ञानिक प्रमाण स्थापित करने वाला एक वैश्विक केंद्र बनने की दिशा में अग्रसर है। इसका उद्देश्य आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी जैसी प्रणालियों को केवल आस्था के दायरे से बाहर निकालकर डेटा, सुरक्षा और प्रभावशीलता के आधार पर वैश्विक स्वास्थ्य नीतियों में शामिल करना है।
WHO के दस्तावेजों में स्थान, चिकित्सा की भाषा में बदलाव
मई 2025 में भारत और WHO के बीच हुए समझौते ने इस प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया है। इसके तहत अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य हस्तक्षेप वर्गीकरण (ICHI) में पारंपरिक चिकित्सा के लिए एक अलग मॉड्यूल विकसित किया जा रहा है। इसका अर्थ यह है कि भविष्य में आयुर्वेदिक या यूनानी चिकित्सा को भी वही वैज्ञानिक मान्यता और कोडिंग प्राप्त होगी, जो आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को मिलती है।
WHO पहले ही आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध की शब्दावली और प्रशिक्षण मानक जारी कर चुका है। यह संकेत करता है कि भारत की पारंपरिक चिकित्सा अब केवल वैकल्पिक नहीं, बल्कि एकीकृत और पूरक चिकित्सा प्रणाली के रूप में मान्यता प्राप्त कर रही है।
कूटनीति, व्यापार और ज्ञान का संगम
सरकार की योजना केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। 25 देशों के साथ समझौतों, विदेशी विश्वविद्यालयों में AYUSH अकादमिक चेयर, 39 देशों में आयुष सूचना केंद्र और विदेशी छात्रों के लिए छात्रवृत्तियाँ — ये सभी पहलें आयुष को एक सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित कर रही हैं।
इसके साथ ही, आयुष उत्पादों और सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा देने के प्रयास यह दर्शाते हैं कि भारत पारंपरिक ज्ञान को वैश्विक बाजार से जोड़ने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। यह पहल भारत के लिए केवल सांस्कृतिक गर्व का विषय नहीं है, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य नीति में भागीदारी का प्रयास भी है। अब सवाल यह नहीं है कि क्या दुनिया आयुर्वेद को स्वीकार करेगी, बल्कि यह है कि भारत अपनी पारंपरिक चिकित्सा को कितनी वैज्ञानिक विश्वसनीयता और वैश्विक स्वीकार्यता के साथ प्रस्तुत कर पाता है। यदि यह संतुलन स्थापित किया गया, तो आने वाले वर्षों में भारत का पारंपरिक ज्ञान, चिकित्सा की भाषा को बदल सकता है।