अमेरिका-ईरान तनाव: 1971 में पाकिस्तान के लिए ईरान की भूमिका
अमेरिका का सैन्य हमला
आज अमेरिका ने अपने बमवर्षक विमानों के माध्यम से ईरान के सैन्य और परमाणु स्थलों पर हमले किए हैं। यह घटना ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक समय था जब अमेरिका और ईरान एक-दूसरे के सहयोगी थे।
दोस्ती का इतिहास
इन दोनों देशों के बीच की मित्रता 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भी देखी गई थी।
उच्चस्तरीय बैठक का खुलासा
एक रिपोर्ट में, एक प्रमुख समाचार पत्र ने अमेरिका के डिक्लासिफाइड स्टेट डिपार्टमेंट दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताया कि 9 दिसंबर 1971 को वाशिंगटन में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई थी। इस बैठक की अध्यक्षता उस समय के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने की थी। भारत ने उस समय पाकिस्तान के कराची बंदरगाह पर बड़े पैमाने पर हवाई हमले किए थे, जिससे पाकिस्तान का ईंधन भंडार नष्ट हो गया था।
पाकिस्तान का ईंधन संकट
सीआईए के निदेशक रिचर्ड हेल्म्स ने बैठक में बताया कि कराची के तेल भंडारण टैंकों पर 12 से 13 हमले हो चुके थे, जिससे 80% ईंधन नष्ट हो गया। पाकिस्तान के पास केवल दो हफ्ते का ईंधन बचा था। किसिंजर ने इस पर सवाल उठाया कि क्या ईरान से ईंधन भेजना संभव है।
ईरान की प्रतिक्रिया
अमेरिकी अधिकारियों ने 8 दिसंबर 1971 को ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी से मुलाकात की और पाकिस्तान की मदद करने का अनुरोध किया। शाह ने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि भारत-सोवियत संधि के कारण वे प्रत्यक्ष सैन्य सहायता नहीं दे सकते।
पाकिस्तान की सेना की स्थिति
अमेरिकी रक्षा अधिकारियों का मानना था कि पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना पूरी तरह से कट चुकी है और 10 से 15 दिनों में समाप्त हो सकती है। पश्चिम पाकिस्तान की स्थिति भी गंभीर थी। यदि भारत लंबे युद्ध में फंसा देता, तो पाकिस्तान की सेना और अर्थव्यवस्था दोनों को नुकसान होता।
दबाव बनाने की रणनीति
निक्सन और किसिंजर ने भारत पर दबाव डालने के लिए दो रणनीतियाँ अपनाने की योजना बनाई थी। पहली, चीनी सेना को भारत की सीमा पर सक्रिय करना और दूसरी, अमेरिकी नौसेना के 7वें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेजना।
अंतिम विचार
इस प्रकार, अमेरिका और ईरान के बीच का यह ऐतिहासिक संबंध और 1971 का युद्ध, दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुए।