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मायावती का सपा पर हमला: जाटव वोटरों की वफादारी पर सवाल

बसपा प्रमुख मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा नेता अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्मूले पर कड़ा हमला किया है। उन्होंने आरोप लगाया कि सपा ने दलितों की अनदेखी की और चुनावों में उनके वोटों को लुभाने का प्रयास किया। इस लेख में जाटव मतदाताओं की वफादारी पर उठते सवालों और बसपा के चुनावी उतार-चढ़ाव का विश्लेषण किया गया है। कांशीराम की जयंती पर आयोजित रैली में जुटी भीड़ की प्रतिक्रिया भी महत्वपूर्ण है, जो बसपा के पारंपरिक जनाधार की स्थिति को दर्शाती है।
 

बसपा प्रमुख का सपा पर आरोप

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति में समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख अखिलेश यादव के "पीडीए" (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) सिद्धांत पर कड़ा प्रहार किया। लखनऊ में कांशीराम स्मारक पर आयोजित एक बड़ी रैली में बोलते हुए, मायावती ने सपा पर आरोप लगाया कि उसने सत्ता में रहते हुए दलितों की अनदेखी की और चुनावों के दौरान पीडीए के नारे के माध्यम से उनके वोटों को आकर्षित करने की कोशिश की। उनके बयान से यह स्पष्ट है कि बसपा अपने पारंपरिक वोट बैंक, विशेषकर जाटव समुदाय, को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है।


जाटव मतदाताओं की वफादारी पर सवाल

हालांकि, एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या जाटव मतदाता अब भी "हाथी" (बसपा का प्रतीक) के प्रति वफादार हैं? पिछले चुनावी आंकड़े यह दर्शाते हैं कि यह वफादारी धीरे-धीरे कम हो रही है। इस लेख में हम बसपा के चुनावी उतार-चढ़ाव में जाटवों की भूमिका का विश्लेषण करेंगे, साथ ही कांशीराम की जयंती पर आयोजित रैली में जुटी भीड़ की प्रतिक्रिया का भी अध्ययन करेंगे, जो बसपा के पारंपरिक जनाधार की वर्तमान स्थिति और चुनौतियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज (दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों) को सशक्त बनाने के लिए बसपा की स्थापना की थी।


बसपा का चुनावी इतिहास

पार्टी ने 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपने चरम पर पहुँचकर 30.43 प्रतिशत वोट और 206 सीटें प्राप्त की थीं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि उस समय बसपा न केवल जाटव, बल्कि गैर-जाटव दलितों, मुसलमानों और कुछ सवर्ण जातियों को भी अपने साथ जोड़ने में सफल रही थी। यह सफलता "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" के नारे पर आधारित थी, जिसमें मायावती ने समाज के सभी वर्गों को एक साथ लाकर सरकार बनाई थी। हालांकि, इसके बाद पार्टी का प्रदर्शन गिरता चला गया। 2012 के विधानसभा चुनावों में, बसपा का वोट शेयर घटकर 25.95 प्रतिशत रह गया। चुनाव आयोग के अनुसार, पार्टी ने 80 सीटें जीतीं, जो 2007 की तुलना में लगभग 5 प्रतिशत की कमी दर्शाता है। इसके मुख्य कारण सत्ता में रहते हुए विकास के वादों को पूरा न कर पाना और भ्रष्टाचार के आरोप थे। इसके बाद, 2014 के लोकसभा चुनावों में, बसपा उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत पाई, और उसका वोट शेयर और गिरकर 19.77 प्रतिशत रह गया। ये आंकड़े बताते हैं कि दलित वोट, खासकर गैर-जाटव समुदाय, विभाजित होकर भाजपा की ओर खिसक गए।