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1989 का लोकसभा चुनाव: पोल सर्वे की शुरुआत और चुनाव आयोग की भूमिका

1989 का लोकसभा चुनाव भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब पोल सर्वे की शुरुआत हुई और चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित किया। इस चुनाव में टीएन शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग ने कई सुधार किए, जिससे राजनीतिक दलों के बीच एक नई चेतना का संचार हुआ। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित किया और पोल सर्वेक्षणों का महत्व बढ़ा।
 

1989 का चुनाव और पोल सर्वे की शुरुआत

1989 का लोकसभा चुनाव एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब लोगों ने पहली बार पोल सर्वे का नाम सुना। हालांकि, उस समय किसी भी एजेंसी ने आधिकारिक रूप से प्री-पोल सर्वे नहीं कराया था। तब तक ऐसी कोई एजेंसी भी नहीं थी। लेकिन, प्रमुख मीडिया चैनलों ने अपने संवाददाताओं को दूर-दराज के क्षेत्रों में भेजकर मतदाताओं के रुझान का अनुमान लगाया। अख़बारों ने मतदाता रुझानों को चार्ट्स के माध्यम से दर्शाया, क्योंकि उस समय देश में निजी इलेक्ट्रॉनिक न्यूज़ चैनल की अनुमति नहीं थी। केवल सरकारी चैनल दूरदर्शन था, जो मुख्यतः मनोरंजन पर केंद्रित था। रात में आधे घंटे के लिए समाचार आते थे, लेकिन उनमें सरकार की प्रशंसा से अधिक कुछ नहीं होता था।


चुनाव आयोग की स्थिति

उस समय चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था थी, जो न तो प्रभावशाली थी और न ही सक्रिय। आरवीएस पेरी शास्त्री उस समय चुनाव आयुक्त थे, और उनका कार्य केवल चुनाव कराना था। निर्वाचन आयोग में किसी प्रकार के नए प्रयोग करने की कोई इच्छा नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि निर्वाचन आयोग उस समय एक निष्क्रिय संस्था थी।


टीएन शेषन का प्रभाव

पेरी शास्त्री के बाद वीएस रमा देवी को चुनाव आयुक्त बनाया गया, लेकिन उन्हें केवल 16 दिन बाद हटा दिया गया। इसके बाद टी एन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त का पद संभाला। उन्होंने चुनाव आयोग की छवि को पूरी तरह से बदल दिया। उनके कार्यकाल के दौरान चुनावी प्रक्रिया में कई सुधार किए गए और सभी राजनीतिक दलों को उनकी शक्ति का एहसास हुआ।


एग्ज़िट पोल का आगाज़

टीएन शेषन के कार्यकाल में चुनाव सर्वेक्षणों को मान्यता मिली। 1996 के लोकसभा चुनाव में पहली बार एग्ज़िट पोल का आयोजन हुआ। इससे पहले चुनावी सर्वेक्षण या तो गुप्त एजेंसियों द्वारा किए जाते थे या राजनीतिक दलों द्वारा। लेकिन वे सार्वजनिक नहीं किए जाते थे।


जनमत सर्वेक्षणों के जोखिम

दूरदर्शन और रेडियो सरकारी नियंत्रण में थे, और अख़बार भी जनमत सर्वेक्षणों को प्रकाशित करने से हिचकिचाते थे। यह अनैतिक माना जाता था और यदि परिणाम अपेक्षित नहीं रहे तो सत्ताधारी पार्टी से डर भी था।


कांग्रेस का विकल्पहीन होना

कांग्रेस उस समय विकल्पहीन थी, लेकिन पार्टी के भीतर कलह भी थी। इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ माहौल बन रहा था, और मतदाता कांग्रेस के खिलाफ वोट देने के लिए तैयार थे।


स्थानीय मीडिया की भूमिका

उस समय राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच सीमित थी, और स्थानीय मीडिया ने सही जानकारी प्रदान की। स्थानीय पत्रकारों की पहुंच और विश्वसनीयता अधिक थी, जिससे वे सही रुझान बता सकते थे।