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ट्रंप की कूटनीति: भारत और यूरोप के बीच संतुलन की चुनौती

डोनाल्ड ट्रंप की कूटनीति में भारत और यूरोप के बीच संतुलन की चुनौती का विश्लेषण किया गया है। ट्रंप के बयानों में विरोधाभास और उनकी 'डील-मेकिंग' शैली पर चर्चा की गई है। क्या यूरोप ट्रंप की सलाह मानकर भारत पर टैरिफ लगाएगा? इस लेख में मोदी की रणनीति और भारत के लिए अवसरों पर भी प्रकाश डाला गया है।
 

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ट्रंप की रणनीति

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बयानों और कार्यों के बीच का अंतर कोई नई बात नहीं है, लेकिन अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे एक विशेष कला में बदल दिया है। हाल की दो घटनाएँ इस बात का स्पष्ट उदाहरण हैं। एक तरफ, ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'मित्र' कहकर भारत-अमेरिका संबंधों को 'असीम संभावनाओं वाली साझेदारी' बताया और व्यापार वार्ताओं के सफल निष्कर्ष का आश्वासन दिया। दूसरी ओर, उन्होंने यूरोपीय संघ से आग्रह किया कि वह भारत और चीन पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाए, ताकि रूस को आर्थिक रूप से कमजोर किया जा सके। यह विरोधाभास केवल शब्दों का खेल नहीं है, बल्कि ट्रंप की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।


वास्तव में, ट्रंप अमेरिकी मतदाताओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि वह रूस को किसी भी कीमत पर झुकाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनका मानना है कि उच्च टैरिफ के माध्यम से भारत और चीन पर दबाव डाला जा सकता है, जिससे वे रूसी तेल की खरीद कम करें। यह कदम उन्हें अमेरिकी राजनीति में एक 'कड़े राष्ट्रपति' के रूप में स्थापित करता है, जो चुनावी माहौल में उनके लिए महत्वपूर्ण है।


यूरोपियन यूनियन की दुविधा

यूरोपीय संघ के सामने यह सवाल है कि क्या वह ट्रंप की सलाह मानकर भारत पर टैरिफ लगाएगा? इसका उत्तर लगभग नकारात्मक है। यूरोप और भारत इस वर्ष के अंत तक मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं। यूरोप अपने उद्योगों और निवेशकों के लिए भारत जैसे बड़े और तेजी से बढ़ते बाजार को खोने का जोखिम नहीं उठा सकता। यूक्रेन युद्ध ने यूरोप को यह सिखाया है कि एकतरफा निर्भरता खतरनाक हो सकती है, और अब वह एशिया में अपने साझेदारों को संतुलित करना चाहता है। इस दृष्टि से भारत उसके लिए एक महत्वपूर्ण धुरी है।


यूरोपीय नेतृत्व को यह भी पता है कि ट्रंप के बयानों में निरंतरता नहीं होती। कल जो 'बहुत अच्छे मित्र' हैं, वे आज 'सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी' भी बन सकते हैं। इसलिए उनकी सलाह पर जल्दबाज़ी में कदम उठाना यूरोप की दीर्घकालिक रणनीति के खिलाफ होगा।


भारत की कूटनीति और ट्रंप का दबाव

ट्रंप की राजनीति दोहरे संदेशों पर आधारित है—एक ओर मधुर वाक्य, दूसरी ओर कठोर धमकियाँ। यह शैली उन्हें घरेलू राजनीति में लाभ पहुँचाती है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनकी विश्वसनीयता को संदेहास्पद बना देती है। यूरोपीय संघ इस हकीकत से परिचित है। रूस के प्रति उसकी नाराज़गी सही है, लेकिन भारत के साथ उसके बढ़ते आर्थिक रिश्ते कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसलिए यह मान लेना कठिन है कि यूरोप, ट्रंप की सलाह मानकर भारत पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाएगा। अधिक संभावना यही है कि वह अपनी स्वतंत्र नीति पर कायम रहते हुए भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते की दिशा में आगे बढ़ेगा।


भारत के लिए यह एक अवसर है कि वह इस स्थिति का लाभ उठाए और यूरोप के साथ अपने आर्थिक संबंधों को मजबूत करे। साथ ही, अमेरिका के साथ संवाद बनाए रखते हुए ट्रंप की 'दोस्ती और दबाव' की राजनीति को संतुलित दृष्टिकोण से देखना होगा। प्रधानमंत्री मोदी इस स्थिति को भलीभाँति समझते हैं। वे जानते हैं कि ट्रंप के बयानों में निरंतरता नहीं होती और अक्सर उनका उद्देश्य केवल वार्ता की मेज़ पर दबाव बनाना होता है। इसलिए मोदी ने ट्रंप के बयानों पर भावनात्मक प्रतिक्रिया देने के बजाय धैर्य और संयम की नीति अपनाई है।


मोदी की कूटनीति की ताकत

मोदी की रणनीति यह है कि अमेरिका से रिश्तों को बिगाड़े बिना, भारत के दीर्घकालिक आर्थिक और कूटनीतिक हितों की रक्षा की जाए। यही कारण है कि उन्होंने सार्वजनिक मंच पर यह संदेश दिया कि भारत-अमेरिका वार्ताएँ 'असीम संभावनाओं' का मार्ग खोलेंगी और वे जल्द ही सफल निष्कर्ष तक पहुँचेंगी। मोदी ने हमेशा ट्रंप के आक्रामक रुख को नज़रअंदाज़ कर भविष्य की साझेदारी पर ध्यान केंद्रित किया है।


अंततः, यह रणनीतिक धैर्य ही मोदी की कूटनीति की सबसे बड़ी ताकत है। वे जानते हैं कि वैश्विक राजनीति में गठबंधनों और साझेदारियों का मूल्य केवल शब्दों से नहीं, बल्कि लंबे समय तक निभाए गए व्यवहार से तय होता है। ट्रंप भले ही दबाव डालें, लेकिन भारत जैसे उभरते बाजार और रणनीतिक साझेदार पर अमेरिका अंततः कठोर कदम उठाने से बचेगा। मोदी की कूटनीति तर्क और संयम से चाल चलती है, और यही नीति भारत को भविष्य में अधिक मजबूत स्थिति में खड़ा करेगी।