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बाहुबली: द एपिक - एक महाकाव्य फिल्म का नया अनुभव

बाहुबली: द एपिक, एस एस राजामौली की महाकाव्य फिल्म का नया संस्करण है, जो दोनों भागों को मिलाकर एक अद्भुत अनुभव प्रस्तुत करता है। इस फिल्म में कहानी, भव्यता और अभिनय की गहराई को दर्शाया गया है। क्या कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा, इसका जवाब अब केवल एक इंटरवल के बाद मिलेगा। फिल्म की लंबाई लगभग चार घंटे है, जो इसे एक सिनेमैटिक महाकाव्य बनाती है। जानें इस फिल्म की विशेषताएँ और क्या इसे देखना चाहिए।
 

बाहुबली: द एपिक का रिव्यू

बाहुबली द एपिक फिल्म का रिव्यू

बाहुबली: द एपिक का विश्लेषण: भारतीय सिनेमा में कुछ फिल्में ऐसी हैं, जिनका नाम सुनते ही ‘कालजयी’ या ‘महाकाव्य’ शब्द याद आ जाता है, और एस एस राजामौली की बाहुबली फ्रैंचाइजी इनमें से एक है। 2015 में जब बाहुबली: द बिगिनिंग रिलीज हुई, तब यह केवल एक फिल्म नहीं थी, बल्कि यह एक नई सोच थी कि भारतीय कहानियों को हॉलीवुड स्तर की भव्यता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है। अब, दस साल बाद, फिल्म के निर्माताओं ने एक अद्भुत प्रयोग किया है—दोनों भागों (द बिगिनिंग और द कन्क्लूजन) को मिलाकर एक नई फिल्म बनाई है: बाहुबली: द एपिक!

यह एक ऐसा विचार है जो केवल राजामौली के दिमाग से ही आ सकता था। सोचिए, जिस सवाल (कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?) के जवाब के लिए देश ने दो साल का इंतजार किया, अब आप उसे केवल एक इंटरवल के बाद जान सकते हैं! जब फिल्म का पोस्टर फिर से देखा, तो रोंगटे खड़े हो गए थे, यकीन मानिए, इसे देखते हुए भी यही अनुभव होता है और इसके पीछे का कारण जानने के लिए आपको यह रिव्यू पढ़ना होगा।

फिल्म नहीं, ‘महाकाव्य’

राजामौली ने दोनों फिल्मों को एक करने का निर्णय लिया, लेकिन इस प्रक्रिया में फिल्म की लंबाई कम नहीं हुई है। री-एडिटिंग के बावजूद, इसकी कुल रनटाइम लगभग पौने चार घंटे (3 घंटे 45 मिनट) है। यदि आप इंटरवल का समय भी जोड़ लें, तो आपको थिएटर में चार घंटे की सीट बेल्ट कसनी पड़ेगी। इसे फिल्म नहीं, बल्कि एक ‘सिनेमैटिक महाकाव्य’ कहा जा सकता है।

फिल्म की गुणवत्ता

कहानी तो हम सभी को ज्ञात है, इसलिए सीधे फिल्म पर चर्चा करते हैं। फिल्म को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए निर्माताओं ने बिगिनिंग वाले हिस्से में कई दृश्यों को संपादित किया है। यह संपादन इतना कुशल है कि कई जगह ऐसा लगता है कि कहानी ‘दौड़’ रही है, खासकर पहले हाफ में। लेकिन इससे कोई महत्वपूर्ण तत्व नहीं छूटता। शिवुडु (प्रभास) और अवंतिका (तमन्ना भाटिया) का जो रोमांस पहले एक बड़ा हिस्सा लेता था, उसे अब लगभग किनारे कर दिया गया है। तमन्ना के प्रशंसक शायद थोड़े निराश हो सकते हैं, क्योंकि उनकी प्रेम कहानी को एक ‘वॉइस-ओवर’ के जरिए निपटा दिया गया है। जैसे मेकर्स ने कहा हो, “चलो भाई, बहुत हुआ इश्क-विश्क, अब सीधे माहिष्मती का राज देखेंगे!”

दूसरे हाफ में, जो कन्क्लूजन वाला हिस्सा है, वहां भी कट्स लगे हैं ताकि कहानी तेजी से अपने क्लाइमेक्स तक पहुंचे। लेकिन इस संपादन का फायदा यह हुआ कि फिल्म में कहीं भी अनचाहा फैलाव महसूस नहीं होता। पूरी कहानी बिना ब्रेक के, एक ही धुन में आगे बढ़ती है, और यही इसे एक ‘महाकाव्य’ वाला अनुभव देता है।

दस साल बाद भी जादू बरकरार

इस फिल्म की असली सफलता इसकी भव्यता है। दस साल बाद भी जब आप महिष्मती की दुनिया बड़े पर्दे पर देखते हैं, तो आप दंग रह जाते हैं। राजामौली का विजन, उनका स्केल और जिस तरह से उन्होंने कल्पना को वास्तविकता में बदला है, वह आज भी भारतीय सिनेमा के लिए एक मानक है।

उदाहरण के लिए, वह दृश्य याद कीजिए, जब प्रभास (अमरेंद्र बाहुबली) दहाड़ता है, “अमरेंद्र बाहुबली यानी मैं!” यकीन मानिए, दस साल बाद भी थिएटर में वही माहौल बनता है। सीटियां बजती हैं, लोग चिल्लाते हैं। और जब राजमाता शिवगामी (रमैया कृष्णन) बच्चे को हाथ में उठाकर कहती हैं, “महेंद्र बाहुबली!” या फिर अपने पति को हाथ दिखाकर कहती हैं, “मेरा वचन ही है शासन,” तो वह दृश्य आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। राम्या कृष्णन ने इस किरदार में जो ‘टशन’ और ‘पॉवर’ भरी थी, वह सिनेमा के इतिहास में हमेशा याद की जाएगी।

वीएफएक्स (VFX) की बात करें तो, 2015-17 में जो काम हुआ था, वह आज भी कई बड़ी फिल्मों को टक्कर देता है। हाथी, झरने, किले और जंग के मैदान ये सब इतने शानदार दिखते हैं कि एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगता कि आप कोई री-रिलीज़ फिल्म देख रहे हैं। इसे री-मास्टर भी किया गया है, जिससे विजुअल्स की गुणवत्ता और भी बेहतर हो गई है।

अभिनय

प्रभास ने इस फिल्म में केवल अभिनय नहीं किया, बल्कि उन्होंने बाहुबली को एक भावना बना दिया है। इस किरदार की सादगी, न्याय के प्रति समर्पण, और युद्ध के मैदान में उनका रौद्र रूप सीधे दिल में बस जाते हैं। अमरेंद्र और महेंद्र दोनों ही किरदारों में उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता का प्रदर्शन किया है।

रमैया कृष्णन द्वारा निभाया गया शिवगामी देवी का किरदार इस महाकाव्य की ‘आत्मा’ है। राणा दग्गुबाती के भल्लालदेव को हम कभी नहीं भूल सकते। यदि हीरो शानदार है, तो विलेन भी ‘टक्कर का’ होना चाहिए। राणा दग्गुबाती ने भल्लालदेव की ईर्ष्या और नफरत को जिस तरह से पर्दे पर उतारा है, वह अद्भुत है। बाहुबली और भल्लालदेव की दुश्मनी को एक साथ, बिना ब्रेक के देखना एक अलग ही अनुभव देता है। अनुष्का शेट्टी की देवसेना, उनका रॉयल एटिट्यूड, उनकी हिम्मत और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का उनका तेवर, इस फिल्म की जान है।

संगीत

एमएम कीरावानी का संगीत इस फिल्म की ‘धड़कन’ है। बैकग्राउंड स्कोर इतना प्रभावशाली है कि जब पर्दे पर तलवारें टकराती हैं, तो आपको भी वह जोर महसूस होता है। हां, संपादन के कारण फिल्म के अधिकांश गाने हटा दिए गए हैं, जो शायद कुछ संगीत प्रेमियों को खले। लेकिन फिल्म के प्रवाह को बनाए रखने के लिए यह निर्णय आवश्यक था।

देखें या न देखें

‘बाहुबली: द एपिक’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा का वह गौरवशाली अध्याय है, जिसने हमें सिखाया कि सपने बड़े होने चाहिए। यदि आपने पहले ये फिल्में नहीं देखी हैं, तो यह आपके लिए किसी ‘ट्रीट’ से कम नहीं है। आपको बिना इंतजार किए, पूरी कहानी एक ही बार में पता चल जाएगी और यदि आप ‘बाहुबली’ के O.G. फैन हैं, तो बड़े पर्दे पर महिष्मती का जादू फिर से देखना, अमरेंद्र बाहुबली के लिए तालियां बजाना और शिवगामी के लिए खड़े होना… यह एक ऐसा अनुभव है जिसे मिस नहीं करना चाहिए। बस याद रखिएगा, चाय-कॉफी और पॉपकॉर्न का बड़ा डिब्बा लेकर जाइएगा, क्योंकि यह यात्रा लंबी है, लेकिन मजेदार है!